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Sunday, April 24, 2011

(8) नेकी का फल

ठसाठस भरी हुई नगर बस-
गोद में दुधमुहा शिशु दबाए खड़ी नवयौवना  को देखा-
त्यों ही -
मेरे मन में सहानुभूति  की चिंगारी फूटी
मैंने अपनी सीट से उठते हुए कहा-
बहन जी बैठ जाइये .
बच्चा भीड़ में परेशान हो जायेगा-
खड़े होने का कष्ट मत उठाइए.
उसने मुझे भस्म कर देने वाली नजरों से-
घूरते हुए कहा -
बदतमीज़ी करते हो शर्म नहीं आती ?
क्या तुम्हारी माँ बहने बस में नहीं जातीं ?
हम इस अप्रत्याशित स्तिथि पर परेशान थे .
तब तक देखा -
हमारे सीट पर एक और भद्र पुरुष विराजमान थे .
पड़ोस की सीटों पर बैठे लोग -
मेरी दयनीय स्तिथि पर मुस्कुरा  रहे थे .
और हम-
अपनी सीट खुद छोड़ कर पछता रहे थे.


नेकी का फल

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