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Monday, May 30, 2011

(51) कर्ण वध

 कौन्तेय कर्ण के मध्य उस समय, था चल रहा चरम पर रण 
दोनों की रक्त फुहारों से, रंग रहा धरित्री का कण-कण.

दोनों के विशिख प्रहारों से, क्षत-विक्षत दोनों के शारीर
निर्णायक क्षण की वेला थी, दोनों सम बल, दोनों गंभीर.
इस गति से तीर छूटते थे, दिखता प्रहार न प्रहारांत
श्रम बिंदु मिल रहे श्रोणित से, दोनों के तन मुख श्रमित क्लांत.
उड़ गए पताका ध्वजा क्षत्र, हिल गयी रथों की भी कीलें
मृत रुंड-मुंड से पटी धरा, मंडराते गीध, बाज, चीलें. 

क्रोधित हो तभी धनंजय ने , नारायण शर कर लिया थाम 
तब जान सृष्टि का क्षय निश्चित, देवता उठे कर त्राहिमाम.

पर तभी कर्ण के श्यंदन का, पहिया धंस गया, धरा उर में
रुक गए अस्त्र, थम गया युद्ध, संतोष हुआ कुछ सुर पुर में .

तब वीर कर्ण ने धनुष-बाण  रख दिए विवश रथ के अन्दर 
श्यंदन को छोड़ निहत्था ही आ गया उतर कर धरती पर .

रथ के पहिये को धंसा देख, लग गया उठाने स्वयं वीर 
ज्यौं- ज्यौं बल कर्ण लगाता था, वह धंसता जाता था गंभीर. 

विश्वासघात होगा उससे , इससे नितांत अनजाना था 
कपिला गौ का था शाप फलित, रथ धंसना मात्र बहाना था. 

तत्समय युद्ध के नियमों में वर्जित था वार निहत्थे पर 
अर्जुन ने तत्क्षण  रोक लिया, शर चढ़ा हुआ प्रत्यंचा पर. 

तब कहा कृष्ण ने अर्जुन से, हे वीर करो अपना प्रहार 
ऐसा अवसर रण मध्य नहीं आने वाला है बार-बार .

अर्जुन बोला नियमानुसार है वार निहत्थे पर वर्जित 
निज स्वार्थ हेतु कैसे तज दूँ, जीवन भर की निष्ठा अर्जित?

संजय बोले तब, जुआ युद्ध में विजय हेतु है सभी उचित
है पार्थ यही उपयुक्त समय, मत खड़े रहो अब चित्र खचित.

वैरी क्षत्रिय, महिपाल हेतु कब, कहाँ, कौन सा कार्य हेय
छल है या बल यह मत सोचो, सन्धानो शर धनु कौन्तेय.

सृष्टि के आदि से आज तलक, अपनाई सबने यही रीति
छल-बल से विजय प्राप्त करना , है रही युद्ध की सदा नीति.

जालंधर वध के लिए विष्णु ने वृंदा के संग किया घात
भस्मासुर के विनाश में भी नारी स्वरुप का लिया साथ.

वारिध मंथन में असुरों को , छल से मदिरा पिलवायी थी
पियूष पिलाकर देवों को  युद्ध में विजय दिलवाई थी .

त्रेता में भी रघुनन्दन ने, था किया बालि का वध छल से
फिर मेघनाद, दशकंधर का भी किया न वध केवल बल से .

हमने भी भीष्म पितामह को, छल से रणभूमि हराया था 
फिर उसी नीति से गुरू द्रोण को भी सुरलोक पठाया था .

क्या भूल गए जब द्रुपद सुता को केश पकड़ कर ले आया
निर्वसना करने का प्रयास था दुहशासन ने अपनाया .

जब भरी सभा के बीच , द्रोपदी कड़ी हुई थी निस्सहाय 
तब किसने उसका लिया पक्ष, तब किसने तुमसे किया न्याय ?

तब उसी सभा में भीष्म, द्रोण ने अधर न क्योंकर खोले थे 
क्या होते देख अनीति, कर्ण या कृपाचार्य कुछ बोले थे ?

वह द्यूतकर्म, द्रोपदी विनय, वह लाक्ष्याग्रह का अग्निकांड
क्या भूल गए, अभिमन्यु तनय के कैसे अरि ने लिए प्राण ?

 वे रहे सदा अपनाते छल,कौरव कब चले नीति पथ पर 
है कर्ण उन्हीं का मित्र-बधो, वह रथ पर हो या धरती पर. 

जब रथ का पहिया उठा कर्ण, कर में ले लेगा धनुष-बाण 
तब रोम न उसका छू पाओगे, इतना निश्चित रखो ध्यान.

स्मरण रहे अपने युग का, निश्चय वह अप्रतिम योद्धा है 
दुर्योधन की दाहिनी भुजा, वीरों का वीर पुरोधा है. 

इस समय कर्ण के कन्धों पर, है शत्रु पक्ष का सकल भार 
कौरवी शक्ति का केंद्र बिंदु, सारा इस पर दारोमदार.

कर्ण की मृत्यु का समाचार, जब कौरव दल में जायेगा 
तो तेरा गर्वित शत्रु पक्ष, बलहीन स्वयं हो जायेगा. 

साधन भी है अवसर भी है, है समय तुम्हारे सानुकूल 
दुविधा मत पालो कौन्तेय, मत करो चूक , मत करो भूल. 

है  परशुराम का शिष्य कर्ण सायुध संहार असंभव है
अब तक के युद्ध मध्य अर्जुन, हो चूका तुम्हें भी अनुभव है.

वरदान उन्हीं का है इसको, रण लड़कर नहीं हरा सकता
आयुध हांथों में लिए कर्ण से विजय न कोई पा सकता.

यह सुर्यपुत्र जब हांथों में, थामेगा फिर से धनुष-तीर
दुष्कर ही नहीं असंभव है, तब जीता जाये कर्णवीर.

है वही कर्ण यह, पांचाली को नगर बधू  जो कहता है
कुत्सित व द्वेष का भाव सदा पांडव जन के प्रति रहता है.

इसलिए प्रतिज्ञा पूरण कर, मत सोच उचित-अनुचित क्या है
अन्न्याई के संग नीति युद्ध, यह भाव सर्वथा मिथ्या है.

फिर जन्म- मृत्यु तो निश्चित है,तू  तो बस मात्र बहाना है
आ गयी मृत्यु बेला जिसकी, उसको बस उस क्षण जाना है.

तेरे ही द्वारा और अभी, है लिखा कर्ण वध इसी तरह
शर प्रत्यंचा से जाने दे मत कर विलम्ब, मत रह निस्पृह.

फिर कुरु दल की अनीति का भी, तो नाश तुझे ही करना है
कौरव दल के हर अनुगामी को, फल कर्मों का भरना है.

अब प्राण कर्ण के लेने को, है काल रहा तुझको निहार
दुविधा से बाहर आ अर्जुन, चिंता को तज बस कर प्रहार.

विचलित हो गया धनंजय भी,फंस  यदुनंदन के वाग्जाल
फडकने लग गए अधराधर, हो गए क्रोध से चक्षु लाल.

डगमग हो गई मनः स्थिति, भर गया रोष से अंतस्तल
हो गया विवेक शून्य अर्जुन, उर दहका भीषण क्रोधानल.

शर चढ़ा तुरत प्रत्यंचा पर, फिर खींच श्रवण तक लिया तान
तत्पर अरी वध के लिए पार्थ, फुंकार उठा तक्षक समान.

फिर पलक झपकते चला तीर, विषधर भुजंग ज्यों बल खाकर
मनो पशुपति का ही त्रिशूल, धंस गया कर्ण के उर जाकर.

आघात भयंकर था इतना, हो गया सहन करना दुष्कर
आ गयी मूर्छा क्षण भर में, गिर गया धरनि पर भहराकर.

कुछ क्षण बीते चेतना जगी , सम्मुख देखा यदुनंदन को
आ गयी व्यथा उर की बाहर, वह रोक न पाया क्रन्दन को.

बस बोला इतना हे गिरिधर, था उचित न तुमको पक्षपात
यह विजय पार्थ की नहीं क्योंकि उसने धोखे से किया घात.
निज कुंडल-कवच पुरंदर को, मां को गुरु के दे दिए बाण
बस रण था अब पुरषार्थ मध्य, फिर क्यों धोखे से लिए प्राण?

हैं आप पार्थ पर कृपावान, इससे मुझको क्या लेना था
कौन्तेय-कर्ण को रण पौरुष भी तो अजमाने देना था. 

अब तो यह प्रायः निश्चित है , अंततः  मृत्यु मैं पाउँगा
पर जो अपकीर्ति तुम्हें मिलनी है, उससे रोक क्या पाउँगा ?

माना अनीति पथ दुर्योधन, पर आप रहे कब नीति पक्ष 
यदि कुरुदल की छवि धूमिल थी, तो रही आपकी कहाँ स्वच्छ ?

है विश्व विदित जो नीति भीष्म वध हेतु आपने अपनाई 
फिर गुरू द्रोण की मृत्यु हेतु भी वही क्रिया थी दोहराई .

अब मेरे साथ हुआ जो कुछ, दुःख उसका नहीं रंच भर है 
पर अपयश दंश मिले तुमको, बस  मात्र मुझे इसका डर है.

यह अंतिम विनय आपसे है, संभव हो इसे छिपा जाना 
था कर्ण तुम्हारा ही अग्रज, मत कभी पार्थ को बतलाना. 

संभव था युद्ध नहीं होता, संभव था रुक जाता विनाश 
हों शासक केवल पाण्डुपुत्र, पर कैसे होती पूर्ण आस .

यदि तुम्हें बुआ के पुत्रों का हित  भाता, तो मैं भी तो था 
मैं नहीं पाण्डुसुत था तो क्या, अग्रज था और सहोदर था. 

मैंने इस रण में कई बार, छोड़ा उन सबको अनुज जान 
रण बार-बार मुझसे मिलकर , तुम सदा कराते रहे भान.

हैं पाण्डु पुत्र मेरे भाई, यह तुमने ही बतलाया था 
पर कर्ण तुम्हारा अग्रज है, क्या उनसे यह कह पाया था ?

भगिनी  सुहाग की रक्षा का, था साथ तुम्हारे  जुड़ा स्वार्थ 
इसलिए कुचक्र रहे रचते, तुम सदा बचाते रहे पार्थ. 

अनिवार्य युद्ध था समर भूमि, यह क्षत्रिय की परवशता  थी 
जीवित रहता तो अर्जुन वध, करना प्रण हेतु विवशता थी. 

तब कहा कृष्ण ने मित्र कर्ण, क्यों आया यह अज्ञान तुझे 
वह अंगराज हो याकि पार्थ, दोनों हैं एक समान मुझे .

इस मृत्यु लोक में हर कोई पाता है अपना कर्म भोग 
विधना ने लिखा इसी विधि था, तेरे जीवन में मृत्यु योग. 

जब निश्चित है विधि का विधान , क्या सोच और क्या रोना है 
फिर यश-अपयश या लाभ-हानि तो हर जीवन संग होना है.

तेरे वध से मैंने तो क्या, जग ने अमूल्य निधि खोई है 
तुझसा दानी या मित्र, वीर अब सृष्टि न दूजा कोई है.

प्रभु परशुराम, कपिला गौ  के, वचनों की लाज निभानी थी 
यह निश्चित था विधि का विधान, तब मृत्यु इसी विधि आनी थी. 

है मेरा यह आशीष तुझे, तव कीर्ति युगों तक रहे अमर 
मानापमान या जन्म-मृत्यु, सब कुछ निश्चित है पृथ्वी पर. 

(50) घायल कर्ण की परीक्षा

 संध्या बीती शशि उदय हुआ, आ गया निशा का प्रथम प्रहर
भेड़िये, स्वान, लोमड़, गीदड़ , ध्वनि कुरुक्षेत्र की धरती पर.
लड़-झगड़  रहे नर मांस हेतु निज उदर पूर्ति का लिए सोच
भौंकते,हुवाते, गुर्राते, लोथों से खाते मांस नोच.
कुछ मूर्छित - अर्ध मूर्छित उर, था मृत्यु पूर्व उठ रहा दाह
घावों की पीड़ा से आहत, था रहा कहीं कोई कराह.
कौरव दल  में था गहन शोक इस असमय कर्ण पराजय पर 
था पाण्डु पक्ष गर्वित प्रसन्न, रण मिली आज अर्जुन जय पर .
बातों-बातों में अर्जुन भी कह गया शब्द कुछ दंभपूर्ण 
मैंने रण मध्य कर्ण खल का, कर दिया आज सब गर्व चूर्ण.
उस दुष्ट, नराधम सूतपुत्र की छाती कर विदीर्ण डाली
दुर्योधन की दाहिनी भुजा भी मैंने आज तोड़ डाली.
तब रहा कृष्ण से गया नहीं, चुप रहो पार्थ वह बोल पड़े
मैं साक्षी हर घटना का हूँ,  इसलिए न बोलो बोल बड़े.
उस कर्ण वीर से तेरी रक्षा का, मैंने हर किया यत्न
तेरी जय में मानव तो क्या, देवों के भी कुछ हैं प्रयत्न
जब कुंडल कवच मांगने को, थे गए इंद्र याचक बनकर
प्रभु परशुराम के दिए हुए, कुंती माता ने मांगे शर.
तब नृप विराट गौशाला में, कपिला गौ ने दे दिया शाप
श्यंदन के पहिये को पृथ्वी ने, अपने उर में लिया चांप.
तीनों लोकों का स्वामी मैं, रहता था तव सारथि बनकर
फिर स्वयं पवनसुत रक्षक बन, रण रहते थे तेरे ध्वज पर.
तब मेरे प्रेरित करने पर, निःशस्त्र कर्ण पर किया वार 
सोचो- केवल निज पौरुष बल , तुम कैसे उसको सके मार?
है मरा अभी तक नहीं कर्ण, घायल लड़ रहा मृत्यु से रण 
उस दानवीर योद्धा क्षति से आहत है वसुधा का  कण-कण.
हे पार्थ, कर्ण है वन्दनीय, अक्षुण, अजेय उसका प्रताप
वह बना समय गति काल-ग्रास , अनुचित तेरा मिथ्या प्रलाप.
बोला अर्जुन दानी योद्धा, मैं कैसे मानूं श्रेष्ठ पुरुष 
यदि कर्ण अभी तक जीवित है तो सिद्ध करें उसका पौरुष.
मेरे सहयोगी होकर भी कर रहे शत्रु का यशोगान 
चल युद्धभूमि में सिद्ध करें, तब मानूं मैं उसको महान.
संजय बोले हे कौन्तेय, कामना पूर्ण होगी तेरी
कर निज शंका का समाधान, चल युद्ध भूमि मत कर देरी.
पर कर्ण परीक्षा लेने को हमको याचक बनना होगा
इस वीर रूप को त्याग पार्थ, ब्राह्मण स्वरुप धरना होगा.
थे विप्र वेश में कृष्ण- पार्थ, रणभूमि खड़े बेबस अधीर 
वे ढूंढ़ रहे थे अंगराज का , शवों मध्य आहत शरीर.
खोजते-खोजते बीत चूका था रजनी का दूसरा प्रहर 
मोहन के पैरों से तब ही  टकराया कर्ण वीर का कर.
बोला राधेय कौन हो तुम, क्या खोज रहे हो शवों बीच
भेड़िये, श्रंगालों में मानव, क्या तुमको लायी मृत्यु खींच ?
संजय बोले हे मनुज श्रेष्ठ, हम दोनों ही याचक ब्राह्मण
पथ  विस्मृत होकर निशा मध्य, आ गए इधर करते विचरण

क्या शिविर बता सकते हो तुम , उस कर्ण वीर का, दानी का 
हम दर्शन लाभ चाहते हैं , उस सूर्यपुत्र वरदानी का.
हे विप्र देर कर दी  तुमने, है कर्ण अकिंचन स्वयं आज 
जो दानवीर कहलाता था, वह शेष कहाँ अब अंगराज ?
बोले  माधव उस दानी का घाट सकता किंचित मान नहीं 
हे वीर कदाचित तुम्हें, कर्ण के बारे में कुछ ज्ञान नहीं.
कैसी भी विषम परिस्थिति में वह सक्षम है सामर्थ्यवान 
इस समय विश्व में  और नहीं, उससा कोई दानी महान
उससे मिल अब तक गया नहीं, कोई भी याचक रिक्त हाँथ 
उस दानवीर की दानशीलता, की लाखों है अमिट गाथ.
तब कहा कर्ण ने विप्र वृन्द , समझाउं तुमको किस प्रकार 
वह दानवीर, वह महाबली, अक्षम है इस क्षण हर प्रकार.
हूँ मै हतभागा  वही कर्ण, पहचानो मुझको हे द्विजवर 
यदि चाहूं भी तो क्या दे दूँ, कैसे दे दूँ तुमको  प्रियवर ?
दुर्भाग्य  इसलिए भी मेरा , कुछ दे न सकूँगा मैं तुमको 
मृत्योपरांत  भी खेद रहेगा , विप्रराज  इसका मुझको.
यह सुनकर क्षण भर सोच, पुनः छोड़ी माधव ने दीर्घ स्वांस 
फिर बोले क्या जाना होगा, अब होकर ब्राह्मण को निराश ?
आ रहा समझ में है मेरी, इन बातों का बस यही सार 
होता था दानवीरता का अब तक तेरी मिथ्या प्रचार.
तब कहा कर्ण ने-विप्र नहीं याचक निराश जाने दूंगा 
जो संभव है समयानुकूल , वह निश्चय ही तुमको दूंगा .
 संभाव्य  विप्र को अर्पित कर , संतोष हृदय कर लेता हूँ
दो दांत स्वर्ण मंडित मेरे, वे तुम्हें दान कर देता हूँ.
पर इसके लिए पड़ा सम्मुख, पाषाण खंड दे दो मुझको
जिससे प्रहार कर तोड़ सकूँ, कर सकूँ इन्हें अर्पण तुमको.
बोले माधव मुझसे श्रम ले, तब तू श्रममूल्य चुकाएगा
यदि ब्राह्मण प्राप्त करे श्रम से, तो दान कहाँ रह जायेगा ?
तब मुष्टि मार कर निज मुख पर, रविसुत ने डाले तोड़ दांत
फिर उनको जड़ से खींच सहज, उपक्रम कर निज रख लिया हाँथ.
बोला हे विप्र ग्रहण कर लो , इस लघुतम भेंट हमारी को
है कर्ण न अब पहले जैसा, समझो उसकी लाचारी को.
बोले माधव हे दानवीर मैं जूठा दान नहीं लेता
ब्राह्मण को देने से पहले कम से कम इनको धो लेता .
पृथ्वी पर घिसट-घिसट कर तब, भट ने संधाने धनुष-बाण
लेटे-लेटे प्रत्यंचा पर, फिर तीर श्रवण तक लिया तान.
अगले क्षण कर से निकला शर , कर गया धरा का उदर पार
पल बीता बाहर उबल पड़ी, धरती से जल की तीव्र धार.
उस जल से धोकर दांतों को तब किया कर्ण ने स्वर्ण दान
मरते क्षण तीनों लोकों के, स्वामी से भी लिया मान.
तब प्रगट हो गए कृष्ण चतुर्भुज, विप्र रूप को दिया त्याग
साक्षात् विष्णु ने सम्मुख हो , कह दिया वत्स जो चाह मांग.
बोला राधेय आपको पा, क्या चाह रह गई पाने की ?
अब तो हे नाथ कृपा कर दें, आज्ञा बस निज पुर जाने की.
सारा जीवन साधक, ऋषि, मुनि, तिल-तिल जल करते हैं प्रयास
हो सफल तपस्या किसी भांति, हो जाय किसी विधि पूर्ण आस.
पुनि-पुनि नर तन ले यही क्रिया, वे बार-बार अपनाते हैं
तब भी दर्शन आपके नाथ, उनको दुरूह हो जाते हैं.
साक्षात् आपको पा करके, है कर्ण धन्य हो गया आज
इससे न अधिक कुछ भी संभव, फिर मांगे क्या, क्यों अंगराज?
बोले माधव ऋषि मुनियों से, हो परम श्रेष्ठ तुम दानवीर
निज उर पुर देता वास तुम्हें, अब तज दो यह नश्वर शरीर.
यह पञ्चभूत निर्मित शरीर, यद्यपि पृथ्वी पर है नश्वर
पर फिर भी तेरी कीर्ति कथा, युग-युग तक होगी अजर-अमर.




   

(49) होली

                                        १.
फागुन भीर अबीर, गुलाल
                   पलाश के रंगन सों रंगी होली
मौर धरे सिर बौर रसाल
                 चले मनौ लेन को दूल्हन डोली
भौरन राग सुरीले कहूँ 
                  सुर में कहूँ पंचम कोकिल बोली 
घूमै वसंत सुगंध लिए 
                 सिर में दई सेमर के रचि रोली. 

                                  २.
नूतन वर्ष के स्वागत में 
                सब साज संवारि चली तन होली 
गेंहूँ, चना, जौं कान्धेन  पै 
                चली फूलन सों सजवाय कै डोली 
राग, मल्हार बजावत, गावत
               कोकिल, भ्रंगन की लिए टोली 
पौन सुगंध बिखेरत संग 
              दई मग नाइ अबीरन झोली.

                         ३.
स्वागत में नववर्ष के आगम के 
             यह साज सिंगार है होली 
प्रेयसी-प्रेमियों के हिय में
            भर लायी वसंत बहार है होली
भारत में मनभावन, पावन
           पर्व नहीं उपहार है होली
दूर करो मन की कटुता
          खुला मेल-मिलाप का द्वार है होली.

(48) वह बहारे लखनऊ

ऐ चमनज़ारे जहाँ, ऐ नाज़नीनाने अवध
रश्क-ए- सद गुलज़ार शहरा, ऐ हसीनाने अवध
अब कहाँ शाम-ए- अवध, रश्क-ए-नज़ारे लखनऊ 
वह नवाबाने नफ़ासत, वह बहारे लखनऊ.

वो अदब, वो कायदा, तहजीब, वो शान-ए- अवध 
वो बहार-ए-खुल्द, वो रौनक, वो ईमान-ए- अवध 
शायरों की महफ़िलों का यादगार-ए- लखनऊ 
है कहाँ वो किस्सा गो, नगमा निगारे लखनऊ

अब कहाँ शाहानापन वो, और वो नाज़-ओ-अदा  
मंदिरों की घंटियाँ और वो अज़ानों की सदा
गंगा-जमनी तरबियत का वो दयार-ए-लखनऊ
मुल्क की चादर का वो सलमा सितारे लखनऊ

महफ़िलों की शोखियाँ वो और लफ़्ज़ों की मिठास 
और वो उडती पतंगें गोमती के आस-पास 
वो तमद्दुन की कशिश ,वो हुस्न-ए-ज़ारे लखनऊ
वो सुकून-ए-दिल, वो दिलवर, वो करार-ए-लखनऊ      

(47) उसमें मुझमें कुछ भेद नहीं

मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद
मुझमें उसमें अंतर इतना, ज्यों मूल और प्रति का विभेद.

जैसे बगिया में खिले फूल, जैसे मिटटी  में बसी धूल
जैसे पुष्पों संग लगे शूल, जैसे वृक्षों से जुडी मूल
जैसे मारुत में बसी गंध,जैसे कविता में रचे छंद
जैसे शरीर के रंध्रों से ,छनकर निकलें श्रमबिंदु  स्वेद 
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद.

जैसे सरगम से बने गीत, जैसे प्रियतम से जुडी प्रीत
जैसे मिर्ची में बसी तीत , जैसे मिटटी से बने भीत
जैसे सागर से मिले सरित ,जैसे बादल में बसी तड़ित
ज्यों पन्नों में इतिहास बसा, जैसे छंदों में रचे वेद
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद.

जैसे शारीर में बसे प्राण, नासिका बसे ज्यों शक्ति घ्राण
जैसे मिठास से युक्त खांड,ज्यों प्रत्यंचा में चढ़ा बाण
जैसे वीणा में बजें तार ,जैसे प्रयाग में त्रिनद धार
ज्यों चातुर्मास महीनों में, हों वारि राशि से भरे मेघ 
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद.

जैसे फूलों में हो पराग, जैसे पाहन में छुपी आग 
जैसे सागर जल उठे झाग , जैसे सूची में फंसा ताग 
जैसे धरती से मिले गगन , जैसे सुगंध ले बहे पवन 
मेरी सुध उसने विसरा दी, बस इतना मुझको रहा खेद 
मैं उसमें हूँ, वह मुझमें है, उसमें मुझमें कुछ नहीं भेद. 
  

(46) सत्य जो होतो बिरंचि मैं तौ

कायर को भुजहीन बनावतो, शूरन चारि भुजा रचि देतो
दानिन के कर देतो बड़े करि, सूमन के कर ही हरि लेतो
कर्ण विहीन  बनावतो चोरन, नासिका वक्र छिछोरन देतो
मूक लबारन को करतो, अरु सत्य की वाणी गिरा भरि देतो.

दंभिन को कृश देतो शारीर, विनम्रता में ममता भरि देतो
धीरन में रचतो पुरुषार्थ, अधीरन की क्षमता हरि लेतो
कामिन देतो कपाल पै घाव , सुजानन के मुक्ता जड़ी देतो
निंदक को स्वर देतो उलूक, कवीन को कोकिला सो स्वर देतो.

भोगिन को करतो मुख सूकर, योगिन तेज ललाट पै देतो 
दुर्जन नासिका हीन बनावतो, सौम्यता साधुन में भरि देतो
देतो दरिद्र कुचालिन को,व्यभिचारिन नेत्र विहीनता देतो 
लम्पट देतो विडाल सो आनन, ज्ञानिन में पटुता भरि देतो .

सींग उगावतो हिंसक के, दयावान में वास वसंत को देतो
लार बहावतो लोलुप के, उपकारिन को कल्पद्रुम देतो 
कील उगावतो क्रोधिन के मुख, सौम्यता में सुचिता भरि देतो 
''सत्य'' जो होतो बिरंचि मैं तौ, सुविचारिन आस सुधा भरि देतो.    

(45) इसको सुबुद्धि देना महेश

कोई फल खाता है कोई चारा भूसा ही खाता है
कोई पत्ते खाकर जीता, पर मांस किसी को भाता है

मुहँ से तो कोई नाक लगा पानी पीने की अलग विधा
कोई चाट-चाट कोई सुड़क-सुड़क देखी जाती इनमें विविधा

कोई एक सींग, कोई दो सिंगा, कोई बारह सींगों वाला है
है बिना सींग के भी अनेक कोई लिए नाक पर भाला है

कुछ पूछ युक्त, कुछ पूछ हीन, पूछें भी हैं कैसी-कैसी
छोटी, मोटी,पतली, झबरी, रस्सी जैसी, झाड़ू जैसी 

पत्ती जैसे, पत्तों जैसे तो सूप सरीखे कोई कान
मोटे, पतले, कुछ गिरे- खड़े, है कड़े मुलायम कोई कान

लम्बी गरदन, ऊँची गरदन, छोटी गरदन, मोटी गरदन
है कोई ग्रीवा नाम मात्र, तो को आठ फुटी गरदन

पंजोंवाला, कोई फीलपांव, कोई पैर और कोई खुरवाला 
कोई नाल जडाता टापों में, फिर चलता होकर मतवाला.

कोई लम्बोदर, कोई उच्च पृष्ठ, कोई विविध रंगों की लिए शान 
आकार किसी का अति लघुतम, कोई विशाल पर्वत समान

कोई फुदक-फुदक, कोई मस्त चाल, कोई सरपट दौड़ लगाता है 
कोई उछल कूद में दक्ष  और डाली-डाली मंडराता है 

रेंकता, रंभाता, मिमियाता, कोई चिंघाड़ लगाता है 
गर्जत, भौकता है कोई, लेकिन कोई गुर्राता है .

पशु अपनी इन्हीं भिन्नताओं से जाति-वर्ग में हैं विभक्त 
लेकिन मानव में क्या अंतर, क्यों मनुज , मनुज के लिए त्यक्त 

आकार बनावट एक सदृश फिर भी फैला ईर्ष्या द्वेष
नर ज्ञानवान होकर अजान, इसको सुबुद्धि देना महेश


Sunday, May 29, 2011

(44) वह मेरी ज़िन्दगानी है

न वह हूरों की शहजादी, न वह परियों की रानी है
मैं उससे प्यार करता हूँ, वह मेरी ज़िन्दगानी है.

वह एक भोली सी लड़की है कि जैसी आम होती है
उसी के नाम से मेरी सुबह और शाम होती है
मैं उस चेहरे पर मायूसी कभी भी सह नहीं पाता
हमारे प्यार की यह एक छोटी सी कहानी है
मैं उससे प्यार करता हूँ वह मेरी ज़िन्दगानी है.

मेरे घर जब से आई है बहारों में बहारें है
महकता सा लगे आँगन, चहकती सी दीवारें हैं
मैं सारी देवियों के रूप उसमें साथ पाता हूँ
वह लक्ष्मी, शारदा, सीता है, कल्याणी, भवानी है
मैं उससे प्यार करता हूँ वह मेरी ज़िन्दगानी है.

वह अक्सर रूठ जाती है तो सारा घर मनाता है
उसी की मुस्कुराहट से मेरा घर मुस्कुराता है
वह जो चाहे वही होता कोई इफ-बट नहीं होता
हमारे घर में उसकी ही, फकत शाह-ए-जहानी  है 
मैं उससे प्यार करता हूँ वह मेरी ज़िन्दगानी है .

वह दद्दा की चहेती है, वह दादी शा की प्यारी है
वह माँ की मानिनी बेटी, वह बापू की दुलारी है
मैं उसको देख सारे गम ज़माने के भुला देता
वह सबका ख्याल रखती है, मगर थोड़ा गुमानी है
मैं उससे प्यार करता हूँ वह मेरी ज़िन्दगानी है.

वह मेरा मान है, सम्मान है, इज्जत है, नेमत है
हमारे वास्ते अहले खुदाई की वह रहमत है
मैं उसका बाप हूँ, उसको बड़े नाजों से पाला है 
वह मेरी प्यारी बेटी है, सलोनी है सयानी है 
मैं उससे प्यार करता हूँ वह मेरी ज़िन्दगानी है . 

(43) अनुतरित से

कभी नेह के मेह रहा करते थे जिन पलकों में
और कभी हम खोये रहते थे जिनकी अलकों में.

उन पलकों से आज प्रश्न प्रायः बरसा करते हैं
अलकों में अब छाँव नहीं सूखे बादल रहते हैं.

जिस पग ध्वनि से मन वीणा के तार बजा करते थे
देह गंध से जिसकी, हरसिंगार  झरा करते थे.

उस पग ध्वनि में साज नहीं हैं, उलाहनें-तानें हैं
हरसिंगार की मधुर गंध से अब हम अनजाने हैं.

थे हम स्वयं जवाब, सवालों से भी खूब लड़े हैं
अनुतरित से प्रश्न बने पर खुद ही आज खड़ें  हैं.

(42) घर नहीं होता

मकां जिनके नहीं है पास, उनके पास घर तो है
मगर महलों में रहते हैं जो, उनका घर नहीं होता.

दर-ओ-दीवार, बैठक, छत  बना लो ईंट, गारे से
हवेली और बंगले, कोठियों से घर नहीं होता.

दिलों को दूर कर देती है दौलत, बाँट देती है
मियां हर मर्ज़ का नुस्खा कभी भी जर नहीं होता. 

पता उनको भी है लेकर न जा सकते यहाँ से कुछ
मगर फिर भी हवश का जोश हरगिज कम नहीं होता.

ये है तो उसकी ख्वाहिश , और वह है तो बड़ी ख्वाहिश
इन्हें दौलत रहे, सब जाय, कोई गम नहीं होता

(41) वह कविता कहाँ है?

 हैं कहाँ वे कवि निराले, और वह कविता कहाँ है
उस नुकीली कलम वाले और वह कविता कहाँ है
हाँ वही कविता-
कि जिसकी साँस में पुरवाइयाँ थीं
और जिसकी गंध लेकर बौरती अमराइयाँ थीं
और वह कविता-
कि जिससे स्वाभिमानी स्वर जगे थे
याकि जिसकी चेतना से, डर फिरंगी तब भगे थे
कर गई जो देश को परतंत्रता से मुक्त
वह कविता कहाँ है?

हाँ वही कविता-
कि जिसकी अग्नि से सूरज बना था
और जिसके स्वाभिमानी बोल सुन गिरिवर तना था
रंग से जिसके हंसी थी घास,  उपवन मुस्कुराये
गंध से जिसकी खिले थे फूल, पौधे लहलहाए
कर गयी सारी धरा को धान्य-धन से युक्त
वह कविता कहाँ है?


हाँ वही कविता-
कि जिसको सुन भ्रमर दल गुनगुनाये
कूक जागी कोकिला की, और पक्षी चेह्चेहाये
और वह कविता
कि जिसकी हंसी से शैशव झरा था
मुस्कुराहट में उमंगें, भ्रकुटि में तांडव भरा था
जो सदा दुःख और सुख में भी रही संयुक्त
वह कविता कहाँ है?

हाँ वही कविता-
जिसे सुन फड़क उठतीं थीं भुजाएं
विजित होते देश थे, थीं गूंजती जय से दिशाएं
और वह कविता
कि जिसमें ईद,होली का मिलन था
दीपमाला की प्रभा थी, ज्योति से लोहित गगन था
थी जहाँ हर वर्ग के प्रति हृदय में अनुरक्ति
वह कविता कहाँ है?





(40) अर्चना कैसे करूँ

अज्ञान हूँ मैं माँ, तुम्हारी अर्चना कैसे करूँ
तव वंदना की पंक्तियों में, भावना कैसे भरूं

तूने चराचर जीव, निज आलोक से झंकृत किये
दी मूक को वाणी तुम्हीं ने, और कवि को स्वर दिए
सब प्राणियों में ज्ञान का संचार तूने ही किया
तव कृपा बिन जागृत जगत की कल्पना कैसे करूँ
अज्ञान हूँ मैं माँ, तुम्हारी अर्चना कैसे करूँ

तू ज्ञानियों का ज्ञान है, विद्वतजनों की विद्वता
है प्रेरणा का स्रोत तू, अन्तः करण  की शुद्धता
तेरी कृपा से नित नए सोपान चढ़ता है मनुज
तव प्रेरणा से हीन कोई कामना कैसे करूँ
अज्ञान हूँ मैं माँ, तुम्हारी अर्चना कैसे करूँ.

हंसासना, पद्मासना हे मातु वीणा धारिणी
वाणी,गिरा, हे शारदे, मातेश्वेरी, स्वर साधिनी
अपनी दया का दान दे, कर मुझ अकिंचन पर कृपा
यूँ  चाह कर भी अम्ब तेरी साधना कैसे करूँ
अज्ञान हूँ मैं माँ, तुम्हारी अर्चना कैसे करूँ.

इहलोक क्या, परलोक क्या बिन ज्ञान सब निस्सार है
मतिमंद के उर की प्रभा तू सार का भी सार है
कुविचार के तम से घिरा संसार सारा है यहाँ
तू ही बता ऐसे जगत का सामना कैसे करूँ

Saturday, May 28, 2011

(39) मेघों ने प्रीत लुटा डाली

बारिश की रिमझिम बूंदों से धरती की प्यास बुझा डाली
प्यासों के सहज निवेदन पर मेघों ने प्रीत लुटा डाली.

सागर का पानी तप-तप कर बन वाष्प क्षितिज वातान हुआ
उस सघन वाष्प संयोजन से, फिर बादल का निर्माण हुआ
तिल-तिल मिल रूप विराट बना, वह नभ में गरज रहा था जो
पावस के प्रणय निवेदन पर निज हस्ती स्वयं मिटा डाली.

फिर तृप्त हुई धरती पुलकी, जुट गई सृजन, संयोजन में
वन उपवन के खिल गए गात, हरियाली छाई तनमन में
फिर शीत मरूत के झोंकों से, कुछ झिझकी सिमटी कायनात
प्रियतम की प्रेम प्रतीक्षा में, झूमने लगी डाली-डाली.

फिर कोयल कूकी डाली से, आया प्रियतम प्यारा वसंत
मद रस छलकाती बही पवन, महकने लग गये दिग-दिगंत
पी कहाँ पपीहा की पुकार , अलि वृन्दों का मधु लय गुंजन
ऋतुराज-प्रकृति का आलिंगन, मधु की मदिरा छलका डाली.    

(38) कलम

इसका हूँ मैं,यह मेरी है, मैं प्रियतम हूँ यह आली है
इस धन से मैं धनवान, यशस्वी हूँ, यह अति गुण वाली है
अरि के सम्मुख यह वज्र और मुझ निर्बल संग बलशाली है
कैसी भी विषम परिस्थिति  हो करती हर दम रखवाली है.

इसका सिर हिमगिरि से ऊँचा, उर जैसे हिंद महासागर
इसका है लघुतम रूप किन्तु, यह जैसे गागर में सागर
इसमें सब रस, सब अलंकार, संधियाँ भाव हैं एक साथ
इसकी स्मृतियाँ हैं अनंत , रहतीं  सक्रिय दिन और रात.

इसमें है माँ का वात्सल्य, भगिनी सा निर्मल प्यार भरा
मानिनी प्रेयसी का गौरव , पत्नी जैसा अनुराग भरा
इसका हर बूँद जलधि सा है, वसुधा को देता नयी आस
इसकी हर साँस वसंत लिए, भर देती जन-मन में हुलास.

इसमें अमूल्य जीवन निधि है, नित नयी आस भर सकती है
यह प्रलयंकर का महाताप, सर्वस्व नाश कर सकती है
यह सर्जक है,यह भंजक है, यह चंडी है, कल्याणी है
बधिरों के कानों का स्वर है, यह मूक मुनुज की वाणी है.

यह महाक्रान्तियों की जननी, है महा मिलन का सेतु यही
डूबते राष्ट्रों का जीवन, उत्कर्ष प्रगति का हेतु यही
इसका आदर कर राष्ट्र, प्रगति के शिखरों को छू लेते हैं
वे विश्व मध्य पूजे जाते , जो इसे समादर देते हैं.

इसकी ज्वाला के लगते ही, हर अनाचार जल  जाता है
इसका पाकर के वरद हस्त, मानव कुंदन बन जाता है
छूकर मसि कागज मात्र, कलम यदि महाक्रान्ति कर सकती है
तो नयी दिशा की वाहक बन विश्व में शांति भर सकती है.

यह दुर्गा है, कल्याणी है, हम सब मिल इसे प्रणाम करें
हे रचनाकारों आओ, जनमानस में नव आयाम भरें.  

(37) मोहब्बत

दर-ए-दिल हर किसी के सामने खोला नहीं जाता 
मोहब्बत को तराजू पर कभी तोला  नहीं जाता 
परों को प्यार के परखा न जाता खुर्दबीनों से
ज़हर ज़ज्बात के रिश्तों में यूँ घोला नहीं जाता 

गिले शिकवे मोहब्बत में हर एक बेला नहीं करते
ये नाजुक कांच हैं , फेंका यहाँ ढेला नहीं करते
सफीना डूबने के दर से जो मायूस रहते हैं
वो लहरों से समंदर की कभी खेला नहीं करते

मोहब्बत की नहीं जिसने वो उसका सार क्या जाने
जो इस एहसास से महरूम है वह प्यार क्या जाने
किसी दिल में उतर जाना, किन्हीं आँखों में बस जाना
बना जाता किसी का किस तरह दिलदार क्या जाने

कोई मंदिर ओ  मस्जिद, चर्च , गुरुद्वारा  नहीं होती
कोई चाहत नहीं होती, कोई प्यारा नहीं होता
न कोई तुरबतें होतीं, न बनता ताज दुनिया में
किसी की आँख का कोई कभी तारा नहीं होता

जवानी की कहीं कोई कहानी भी नहीं होती
न खिलते फूल गुलशन में रवानी भी नहीं होती
मोहब्बत बिन खुदाई क्या, खुदा भी खुद नहीं होता
कहीं इंसान की कोई निशानी भी नहीं होती

कोई लैला, कोई मजनू, कोई फरहाद न होता
मोहब्बत के लिए कोई कहीं बर्बाद न होता
ये दर्द-ओ-गम नहीं होते,कोई रिश्ते नहीं होते
कोई कुनबा, कोई बस्ती, नगर आबाद न होता  

(36) गजल

मेरे साथ है तेरी जुस्तजू, तू सुकून-ए-दिल है, करार है
मेरे दर्द-ए-दिल की दवा है तू  , उजड़े चमन की बहार है .

मेरी जिंदगी, तेरी शायरी, तेरी शायरी मेरी जिंदगी
मेरा फ़िक्र-ओ-फन मेरी शायरी तेरी एक अदा पे निसार है.

ये खुदा से है मेरी इल्तिज़ा, तू जहाँ रहे वहां खुश रहे
मेरा क्या है, क्या मेरी आरजू, मेरा सिरफिरों में शुमार है

मैं हूँ मुबतिला तेरे वस्ल में, तुझे क्या सुनाऊं मैं हाल-ए-दिल
हमें बैठने न दे चैन से, ये अजब तरह का खुमार है

मेरी हसरतें, मेरे रंज-ओ-गम से तू हो भले ही बेखबर
मेरी जिंदगी तेरी चाहतों में अब जलील-ओ-खार है.

(35) यत्न निरंतर करने वाला सदा जयी होता है

 राजा एक छिपा बैठा था गिरी गह्वर के अन्दर
तीन युद्ध वह हार चुका था शत्रु पक्ष से लड़कर.

शत्रु पक्ष से भीत निराशा थी अंतर्मन छाई
शिला खंड से तभी फिसलती चींटी पड़ी दिखाई.

खाद्य पदार्थ दबा था मुहँ में किन्तु न उसने छोड़ा
गिरकर संभली पुनः लक्ष्य पत्थर पर अपना मोड़ा.

पिछली गति से तेज़ चढ़ रही थी इस बार शिला पर
अर्ध मार्ग से पुनः फिसल वह गिरी भूमि पर आकर.

ऐसे पांच प्रयास किये पर सफल न वह हो पाई
छठवीं बार कड़ी मेहनत कर वह ऊपर तक आई.

देख रहा था राजा यह सब मन्त्रमुग्ध सा होकर
जो निराश बैठा था इस क्षण अपना सब कुछ खोकर.

चींटी की यह लगन देख रजा में पौरुष आया
इस घटना ने आशा दृढ़ता का संकल्प जगाया.

सोचा भाग्य सहारे रहने वाला ही रोता है
यत्न निरंतर करने वाला सदा जयी होता है.

वह बाहर आया फिर बिखरे सूत्र संभाले सारे
गज, तुरंग, रथ सैन्य और आयुध सब नए सवाँरे.

नई शक्ति सहस से वैरी राजा पर चढ़ आया
सत्ता मद में चूर शत्रु को रण में मार गिराया.

(34) कुँए का मेढक

वृष्टि अनवरत थी जारी, भीषण वर्षा के मारे
नदी, ताल, वन और खेत जलमग्न हो गए सारे.

उसी बाढ़ में सागर का मेढक भी बाहर आया
दैव योग ने उसे ठेलकर कुँए तलक पहुँचाया.

लेकिन उसे देखते ही कूपे का मेढक बिदका
कुँए मध्य हो अब तक का जीवन बीता था जिसका.

कौन, कहाँ के हो तुम और यहाँ तक कैसे आये
मार्ग भ्रमित हो गए, याकि पानी में बहकर आये?

भीषण वर्षा से सम्पूर्ण धरा जल प्लावित भाई
यही बाढ़ मुझको सागर से यहाँ तलक ले आई.

वह बोला सागर क्या है? क्या वह दूसरा कुआँ है
तुम्हें देखकर मेरे मन में संशय तनिक हुआ है .

सागर तो असीम है भाई, उसकी तुलना भ्रम है
लाखों कुँए मिलें तब भी सागर के सम्मुख कम हैं.

कुँए का मेढक बोला- है भाग्य तुम्हारा फूटा
सागर और कुँए से बढ़कर निकल यहाँ से झूठा.

मैं जीवन भर निकल न पाया इस कुँए के बाहर
तू बहकर आ गया यहाँ, कहता विशाल है सागर.

याद रखो जिसने जीवन में जितना कुछ देखा है
उसके ज्ञान क्षेत्र की बस वह ही अंतिम रेखा है.

(33) पत्ता भी नहीं हिलेगा

लाद कुल्हाड़े गुजर रही थी जंगल से एक गाड़ी
छोटे पेड़ सोच यह भागे आई विपदा भारी.

बीच राह में एक बड़ा बूढा वट वृक्ष खड़ा था
छोटे वृक्षों की तुलना में अनुभव जिसे बड़ा था.

उसने पूछा आखिर तुम सब कहाँ जा रहे भागे
कुछ पीछे आ रहे और कुछ निकल चुके हैं आगे?

तब उनमें से एक पेड़ ने बरगद को बतलाया
जंगल में आ चुके कुल्हाड़े हम पर संकट आया.

बरगद बोला क्या उनसे अपना भी बन्धु मिला है
अर्थ, कुल्हाडों के अन्दर लकड़ी का बेंट पिला है?

नहीं अकेले हैं वे, स्वर समवेत सभी का आया
तब बरगद ने उन्हें धैर्य देकर  ऐसे समझाया.

याद रखो जब तक दुश्मन से अपना नहीं मिलेगा
तब तक तुम्हें काटना क्या पत्ता भी नहीं हिलेगा.  

(32) मैं विद्रोही बन जिया सदा


कुछ लोग हवा के साथ चले, धारा के साथ बहे  होंगें
लोगों की नजरों में शायद वे ही तैराक रहे होंगे
मैं सदा चला विपरीत धार, मझधार-पार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

गद्दों पर उनको नींद नहीं, मैंने धरती पर सुख पाया 
वे फूल कुचलते निकल गए, मैंने काटों को अपनाया
उनको न चैन था महलों में, मैं खपरैलों में रहा मस्त 
मैं लड़ा अनल की लपटों से शीतल  फुहार से क्या लेना 
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

मेरी दस दिन की रोटी में, उनका बस एक निवाला था
बाहर से जितना उजले वे, अंतरतम उतना काला था
छल-छदम न मैंने अपनाया, मैं हूँ पुस्तक का खुला पृष्ठ
मैंने प्रकाश को अपनाया, फिर अन्धकार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

था सुना आग की लपटों से सोना कुंदन बन जाता है
पत्थर पर घिस जाने पर ही मेंहदी का रंग दर्शाता है
गोरी के गले लगा न सही,न उसकी रचा हथेली पर
संघर्ष मार्ग का राही मैं, मुझको बहार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

वे छिपकर तीर चलाते थे, मैंने छाती पर सहे वार
वे रहे कोंचते घावों को, मैंने बदले में दिया प्यार
वे रहे लूटते, हम लुटते,पर मैंने छोड़ा नहीं लक्ष्य
सहलाया मैंने चोटों को, मुझको प्रहार से क्या लेना
मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना.

(31) घुट-घुट कर जीना, जीना क्या?

जीना तब तक हंस कर जीना, घुट-घुट कर जीना, जीना क्या !
पीना तब तक छक कर पीना , छुप-छुप कर पीना, पीना क्या !
                   जब दिया ओखली  में सर को
                   चोटों की परवाह क्या करना
                   जब एक बार चुन लिया मार्ग
                   फिर तूफानों से क्या डरना
क्या आंधी, वर्षा, अन्धकार, ऋतु मौसम और महीना क्या !
जीना तब तक हंस कर जीना, घुट-घुट कर जीना, जीना क्या!
                  मेरी असफलताओं को लख
                  माना कुछ जन हँसते होंगे
                  मेरे पीछे जनचर्चा में कुछ
                  व्यंग बाण कसते होंगे
मैं फाड़-फाड़ कर सीता हूँ, उस फटे हुए को सीना क्या !
जीना तब तक हंस कर जीना, घुट-घुट कर जीना, जीना क्या !
               जो बीत गया उसका क्या दुःख
              जब रात गई तो बात गई
              क्या एक चोट को सहलाना
              हमने हैं झेले घात कई
पी महादेव के प्याले को, अमृत प्याले का पीना क्या !
जीना तब तक हंस कर जीना, घुट-घुट कर जीना, जीना क्या !
             सीखा होगा तुमने पाकर
             हमने खोकर के सीखा है
             मीठे का स्वाद एक क्षण का
            वह याद रहे जो तीखा है
औरों के लिए जिया मैं तो, खुद का जीना ही जीना क्या !
जीना तब तक हंस कर जीना, घुट-घुट कर जीना, जीना क्या !

Friday, May 27, 2011

(30) लेखनी

मूल्य क्या उस लेखनी का सत्यताजो कह न पाई
जो उठी यश गान में नर के, करूँ कैसे बड़ाई.

लेखनी वह जो निबलतम में नया पुरुषार्थ भर दे
जो समर्थों के ह्रदय में क्षमा, करुणा, प्यार भर दे
धार हो तलवार की जिसमें, विनय हो ,प्यार भी हो
हो मृदुलता अमिय की, उर में जलधि का ज्वार भी हो.

लेखनी वह जो अनाथों को शरण दे, प्रेरणा दे
बेसहारों को सहारा और जन को चेतना दे
हृदय में अनुराग भर दे, सौम्यता शुचिता बढ़ाये
पथ प्रदर्शित करे जन का, राह भटके को दिखाए.

लेखनी वह जो प्रगति पथ कंटकों से हीन कर दे
दंभ के, अन्याय के, मद के विभव को क्षीण कर दे
राजभय से भीत होकर शीश मत अपना झुकाए
शक्ति दे अन्याय के प्रतिकार  की, दृढ़ता बढ़ाये.

दीन की अभिव्यक्ति हो जिसमें, दलित का आर्त स्वर हो
शोषितों की वेदना के प्रति समर्पण भी प्रखर हो
अनाचारों से लड़े जो सदा जनगण की लड़ाई
है उसे शत-शत नमन आओ करें उसकी बड़ाई.




(29) प्रश्न?

याचना से बड़ी कौन दयनीयता
भावना से बड़ी कौन कमनीयता
कामना से बड़ी क्या असहनीयता
साधना से बड़ी कौन रमणीयता.
                                              प्रश्न जीवन मरण से बड़ा कौन सा
                                              धर्म मां के चरण से बड़ा कौन सा
                                              नीति सहभागिता से बड़ी कौन सी
                                              पंथ सदभावना से बड़ा कौन सा.
कौन सी हार दुर आचरण  से बड़ी 
कौन सी जीत सद आचरण से बड़ी
कौन सी हानि अपमान जैसी बड़ी 
कौन सा लाभ सम्मान जैसा  बड़ा.
                                             शत्रु दुर्भावना से प्रबल कौन सा 
                                             मित्र निज आत्मबल से सबल कौन सा 
                                             नीर देवापगा सा धवल कौन सा 
                                            छीर जननी हृदय सा विमल कौन सा.
कर्म दायित्व की पूर्ति से क्या बड़ा
मर्म निज आत्म अनुभूति से क्या बड़ा
प्रीति अनुराग परमार्थ से क्या बड़ा
शास्त्र अरु ग्रन्थ पुरषार्थ से क्या बड़ा.
                                           मोह जैसा बड़ा आत्मछल  कौन सा
                                           लोभ जैसा बड़ा दुष्ट खल कौन सा
                                           दंभ जैसा जगत में निबल कौन सा
                                           क्रोध जैसा प्रबलतम अनल कौन सा.
कौन सा क्लेश जग में विरह सा दुखद
कौन सा हर्ष प्रिय के मिलन सा सुखद
विष्व भर में भला क्या गगन सा वृहद्
कौन सी प्राप्ति है ज्ञान जैसी विशद.
                                        सृष्टि में ग्लानि जैसा गरल कौन सा
                                        नेत्र के अश्रु जैसा तरल कौन सा
                                        मातु के स्नेह जैसा सरल कौन सा
                                        दामिनी धुति तड़ित सा चपल कौन सा. प्रश्न?



Thursday, May 26, 2011

(28) यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था

कोयल की कूक और महकी सी अमराई
मोर की मुरलिया से  बजती थी शहनाई
बाल व किशोरों की दौड़-धूप,चहल-पहल
छप्पर की बेलों पर चिडियों का कोलाहल 
रामू और बिरजू का यहीं कहीं ठांव था 
यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.
                  नीम की निमौड़ी की कच्ची पक्की छमियां 
                  सनई की फलियों की कल्लो की करधनिया
                  बांसों के झुरमुट की बंशी की आवाजें
                  यहीं उस बड़े वाले पीपल का छाँव था 
                  यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.
चमकीले खंजन की वह प्यारी सी फुदकन
बगुलों की कों-कों और गौरैया की थिरकन
तोतों के झुण्ड वे, कबूतरों की गुटर गूं वह
यहीं पर कौओं का होता कांव-कांव था
यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.

                 खेतों की मेड़ें और धूल भरे गलियारे
                 पोखर वे, पनघट वे, गलियां वे चौबारे
                 नदी की कछारों में लोटती पड़ी भैसें
                 रामदीन काका का यहीं एक नाव था
                 यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.

गाय का रम्भाना और बकरी का मिमियाना
पेड़ों के पीछे वह सूरज का छिप जाना 
चोखे का, दीनू का, घुरहू का, झीनू का
हम सब का आपस में कितना लगाव था 
यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.

               गूलर की गंध और सोने सी पकी फसलें 
               बौर और फूलों पर बैठकर मधुप रस लें
               सरसों का साग और मक्के की रोटी का
               हाथ मथे मठ्ठे का आहा क्या चाव था
               यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.
रमई की गैय्या वह, बकरियां फरीदन की 
तीतर दुलारे के, मुर्गियां अमीरन की 
सकटू की भेड़ों का साथ-साथ चलना वह 
लगता नदी का सा मंथर बहाव था
यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.

             नदियों की रेती में गाँव का अखाड़ा वह
             धोबीपाट, कालफांस दावों का नज़ारा वह
             कसरती शरीरों  की कुश्ती और डंड बैठक
             फागू से मैंने यहीं सीखा पेंच-दांव था
             यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.

बिरहा की, आल्हा की, चैता की तानें वे
कजरी के, फगवा के मोहक तराने वे
काका की पगड़ी और चुन्ना की फटी कमीज़
दादा की मूछों का अपना ही ताव था
यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.

           बोझों में, मीलों तक फैले खलिहानों में
           कितना था हेल-मेल गाँव के किसानों में
           हलवाहे काका की प्यारी सी गोदी वह
           ऊँच-नीच, भेद-भाव न कोई दुराव था
           यहीं कहीं मेरा वह छोटा सा गाँव था.

(27) हम भारत के गौरव किसान

हम भारत के गौरव किसान, हम वसुधा के वैभव किसान
हम भूमिपुत्र, हम कृषक वीर, हमसे जग में धन और धान्य.

हमने पाषाण सदृश धरती, पर भी निज हल को खींचा है
सूखी वसुधा के चरणों को, अपने श्रम जल से सींचा है
निर्जीव मृदा में हमने ही निज श्रम से पूरित किये प्राण
हम भारत के गौरव किसान, हम वसुधा के वैभव किसान.

हम कृष्ण सखा, अग्रज, हलधर बलदाऊ के अनुयायी हैं
भाषा, भूषा या जाति धर्म से परे कृषक हम भाई हैं
अपने पौरुष से जीवन हित जन-जन को करते अन्न दान 
हम भारत के गौरव किसान, हम वसुधा के वैभव किसान.

हम भरी दोपहर में खेतों की मिटटी से टकराते हैं 
घुटनों तक पानी में घुसकर वर्षा में धान लगाते हैं 
लड़ते हम शीत लहर से भी वह निशा प्रहर हो या बिहान 
हम भारत के गौरव किसान, हम वसुधा के वैभव किसान

निज मातृभूमि का शीश जगत उन्नत करने की आशा है  
पूरित हो धरा धान्य-धन से अपनी इतनी अभिलाषा है
कमाना, विश्व में पुनः बढे भारत का वैभव और मान
हम भारत के गौरव किसान, हम वसुधा के वैभव किसान 





(26) नगर

तब भी यहाँ सभी धर्म, जातियां और सम्प्रदाय थे
नगर हमारी संस्कृति के वाहक और सभ्यता के पर्याय थे 
सभी लोग-
पीर की मजार पर चादर चढाते थे 
होली में रंग खेलते, ईद पर गले मिलते
और बैसाखी पर नाचते गाते थे .
किन्तु आज-
यहाँ भी लोगों के सोच बौने हो गए हैं 
हम दायरों में सिमटकर
राजनैतिक बाज़ीगरों के हाथों के खिलौने हो गए हैं. नगर

(25) दरिंदों का शहर

 लखनऊ कैसा ये बरपा है  तेरे घर में कहर
 शहर-ऐ-तहजीब है इस दौर दरिंदों का शहर.

कहीं बलवा और कहीं कत्ल, कहीं डाकेजनी
मिल्ल्तों का ये शहर आज है दंगों का शहर.

अदब-ओ-तहजीब पे ग़ालिब हैं बदजुबा फिकरे
हर तरफ यक सा नुमायाँ है लफंगों का शहर. 

बीती बातें हैं नफासत और वो शाम-ए-अवध 
बदनुमा लग रहा है आज ये रंगों का शहर. 

 कैसे कह दूँ कि फ़िदा हम व लखनऊ हम पर
 है ये अब सिर्फ और सिर्फ दबंगों का शहर.  

Wednesday, May 25, 2011

(24) आदमी और इंसान में फर्क क्या?

                 जो निराकार मंदिर में भगवान है
                 वह ही दूजे को मस्जिद में रहमान है
                 जिसने मंदिर बनाया वह है आदमी
                 जिसने मस्जिद बनाई वह इंसान है
बेवजह  के बखेड़े बिला नीव के, राम में और रहमान में फर्क क्या
एक पूजा करे इक इबादत करे, आदमी और इंसान में फर्क क्या.
                कोई मंदिर में जाकर  के पूजा करे
                कोई गुरद्वारे  जाकर के माथा धरे
                कोई सिजदा करे मस्जिद-ओ-चर्च में
                कोई तन पर मले खाक विनती करे
रास्ते हैं जुदा एक मंजिल मगर, जग के मालिक की पहचान में फर्क क्या
एक पूजा करे एक इबादत करे, आदमी और इंसान में फर्क क्या.
                कौन मजहब सिखाता बहाना लहू
                कौन सा धर्म इंसानियत छोड़ना
                कौन कहता कि मजलूम पर जुल्म कर
                कौन हैवानियत की तरफ मोड़ना
हो गुरुग्रंथ  साहिब कि हो बाइबिल, वेद, गीता व कुरआन में फर्क क्या
एक पूजा करे एक इबादत करे, आदमी और इंसान में फर्क क्या .
               धर्म ग्रंथों के हर एक सफे पर हमे
               बस लिखी एक जैसी इबारत मिली
               सबसे मिलकर रहो सबको लेकर चलो
               सबमें बस एक अल्लाह का नूर है
पादरी, मौलवी, पंडितों का वहम, गाड, अल्लाह, भगवान् में फर्क क्या
एक पूजा करे एक इबादत करे, आदमी और इंसान में फर्क क्या .
               अपने मकसद के ही खातिर ही इंसान ने
               धर्म-ओ-मजहब की खाई की इजाद की
               और फिरकापरस्तों की चालों ने फिर
               उनको गहरा बनाने में इमदाद की
एक इंसान को खौफ इंसान का, आदमी और शैतान में फर्क क्या
एक पूजा करे एक इबादत करे, आदमी और इंसान में फर्क क्या .
meri kavitayen