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Sunday, June 12, 2011

(60) किसलिए ग़मगीन हो तुम

मथ रही उलझन कोई , या कल्पना में लीन  हो तुम,
किसलिए सिर को झुकाए ,किसलिए ग़मगीन हो तुम.

देखिये उनको, जो पहुंचे शीर्ष पर लड़कर समय से,
बड़ा या छोटा कोई होता नहीं धन और वय से ,
ज्योति अपनी खुद बनो, खुद रास्ता अपना बनाओ,
पथ प्रदर्शक भी बनो,यह सोच त्यागो, दीन  हो तुम. 

दूसरे का ले सहारा जो चले , वह स्वयं क्या है ,
खुद कहाँ पहचान उसकी, हर समय पीछे खड़ा है,
जाय रुक अगला तो रुकना, चल पड़े अगला तो चलना,
खुद नहीं मालूम जाना है कहाँ, पथहीन हो तुम .

 मानता नव पथ सृजन में, श्रम बहुत ,संघर्ष भी है,
किन्तु श्रम,संघर्ष का प्रतिफल ,नया उत्कर्ष भी है,
सोचिये खुद के बनाए मार्ग के अधिपति तुम्हीं हो,
तुम प्रणेता,प्रेरणा,प्रेरक स्वयं स्वाधीन हो तुम .

मरो तो हंसते हुए,पर जियो तो सिर को उठाकर ,
स्वर्ण से कुंदन बनोगे,अग्नि में देखो तपाकर ,
सिर्फ उनको ही डराता समय,जो भयभीत हैं खुद,
करो अपने पर भरोसा,कब , किसी से हीन हो तुम.
किसलिए सिर को झुकाए, किसलिए गमगीन हो तुम.