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Wednesday, June 15, 2011

(63) ऐसे तो नहीं थे वे

दुर्गम चढ़ाइयों पर 
पहाड़ों की गोद में 
घने जंगलों के बीच 
प्रकृति के सानिध्य में
वे प्रकृति पुरुष थे .

जंगली पशुओं का आखेट ,
उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग
और उनके भोजन की आवश्यकता थी,
किन्तु वे हिंसक नहीं थे .
उनमें भी भावनाएं थीं,संवेदनाएं थीं .
वे भी जानते थे पीड़ा और दुःख को,
उनमें भी थी मानवता और अपनों के प्रति स्नेह .

अब वे ,वे नहीं रहे .
उनके हाथों में-
बरछे, भाले, धनुष-बाण और बंदूकें हैं ,
जंगली जानवरों का शिकार करने के लिए नहीं,
अपने उन दुश्मनों से लड़ने के लिए -
जो आज तक उन्हें छलते,उनका शोषण करते रहे हैं .
कानूनन हिंसा अपराध है -
लेकिन तब कहाँ था क़ानून -
जब उन्हें लगातार छला जा रहा था .

वे नहीं जानते थे लोकतंत्र का मतलब,
वे नहीं जानते थे स्वाधीनता का मूल्य 
किन्तु वे आज़ाद थे पूरी तरह अपने अभयारण्यों में 
अपने उन जंगली चौपायों के बीच .
जिन्दगी कुछ ज्यादा कठिन थी,वस्त्रहीन थे वे.
लेकिन वे -
खुद अपने शासक थे, खुद लोक थे,खुद लोकतंत्र थे.
स्वचालित वाहन, कोठी, बंगले और सुविधाओं भरा जीवन ,
उनके लिए परी कथाओं सा था .
वे मानते थे उसे दूसरी दुनिया 
लेकिन उनमें उन्हें पाने का लोभ नहीं था .

फिर वोटों के सौदागरों ने -
उन्हें सपने दिखाए .
उनके अरमान   जगाये और सपनों को दिए पंख.
जीतने के बाद उन्होंने ही उन पंखों को नोचा भी ,
बस उनके बीच के कुछ दलालों को नवाजा .
और फिर यही हुआ बार-बार .
दलालों की समृद्धि बढी -
वे सियासी रसूखदार और ओहदेदार भी बने,
लेकिन वे हर बार और हर एक से छले गए.

यही नहीं -
फिर वे उन जंगलों से भी बेदखल किये जाने लगे ,
जो उनके पालक थे, पिता  थे .
और उस जमीन से भी-
जो उनकी माँ थी .
स्वाभाविक आक्रोश में उन्होंने हथियार उठाये ,
यह प्रतिकार था , लेकिन-
सरकारी भाषा में वे नक्सली, माओवादी कहलाये .

अब वे मारते भी हैं, मारे भी जाते हैं,
लेकिन कोई नहीं जानना चाहता -
की  भोले-भाले आदिवासी किस मजबूरी में हथियार उठाते हैं.
बार-बार उठती है यह बात-
की वे ऐसे तो नहीं थे .
लेकिन कौन समझना चाहता है उनकी व्यथा .
हथियारों से हथियार परास्त किये जा सकते हैं ,
भावनाएं और आक्रोश नहीं.
और जब तक-
व्यवस्था इस बात को नहीं समझेगी ,
तब तक पैदा ही होते रहेंगे -
कानू सान्याल .