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Friday, July 29, 2011

(86) जिंदगी गम ही नहीं

जिंदगी गम ही नहीं, खुशनुमा एहसास भी है ,
ज़रा तलाश के देखो, वो आस-पास भी है.

ज़मीं की मुश्किलों में मुब्तिला क्योंकर रहना,
उड़ान भरने को सारा खुला आकाश भी है.

गम की गठरी को संजोने से दर्द होता है,
मगर उसी में कहीं पर छिपी मिठास भी है.

जिंदगी के ग़मों को ले के कहाँ तक रोयें, 
अँधेरा है कभी तो फिर कभी उजास भी है.   

ये नाचता है जहाँ , बस उसी की सरगम पे,
जिसमें है जूझने का जज्बा और आस भी है .

Tuesday, July 26, 2011

(85) राजनीति संतों का काम नहीं ?

अन्यायी राजाओं का अंत करने वाले परशुराम, 
ब्रह्मा की सृष्टि को चुनौती देने वाले विश्वामित्र ,
अत्याचारी शासक नन्द वंश के विनाश की शपथ लेकर -
चरवाहे बालक को यशस्वी सम्राट बनाने वाले चाणक्य ,
सिख गुरू नानक और गुरू गोविन्द सिंह ,
और आधुनिक युग में -
भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की बेमिसाल , मशाल ,
ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेकने वाले -
मोहन दास करमचंद गांधी ,
इनमें से कौन नहीं था संत ?
देश- दुनिया में और भी हैं ऐसे अनंत /

ये सब युगातीत राजनैतिक इतिहास के महाग्रंथ हैं /
और सच्चे अर्थों में -
वे अपने समय के संतों से भी बड़े संत हैं /
कौन कहता है -
कि  राजनीति संतों का काम नहीं है  ?
व्यवस्था को गलत दिशा में भटकने से रोकना ,
संतों का वास्तविक काम यही है /
और सच यही है कि-
राजनीति में असंतों के वर्चस्व के कारण ही -
अन्याय, उत्पीड़न, भेदभाव और भ्रष्टाचार के मामले बढ़े हैं /
एक प्रश्न और -
क्या राजनीति असंतों (दुष्टों ) का काम है ?
जो लोग इस प्रश्न पर मौन हैं /
सोचिये, वे लोग कौन हैं ?

बिना व्याख्या के स्पष्ट है -
जो राजनीति में हैं , वे संत नहीं हैं /
वे मुंशी प्रेमचंद, निराला या पन्त नहीं हैं /
वे समाज की व्यथा से बहुत दूर हैं /
या यह कि-
वे ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में नासूर हैं /
वे नहीं चाहते -
उनके तिकड़म और हेराफेरी को कोई संत (सज्जन ) जाने /
उनकी मक्कारी और बेईमानी पर उँगली ताने /
इसीलिये वे संतों पर उँगलियाँ उठाते हैं /
क्योंकि एक आँख वालों को -
दोनों आँखों वाले कहाँ सुहाते हैं ?


  

Sunday, July 24, 2011

(84) राजनीति और धर्म

धर्म, पूजा-पद्धति का नाम नहीं ,
धर्म,जीवन पद्धति है.
जिसके आदर्शों में-
दया है, करुणा है,
प्यार है, नैतिकता है,
सहयोग है, सदाचार है ,
अन्याय का प्रतिकार है.
और वे सब नियम-उपनियम भी -
जो मानवता  के लिए आदर्श माने जाते हैं.  
जो ऐसे धर्म को नशा मानते हैं,
उन्हें आप क्या मानते हैं?

और राजनीति के वे कथित पहरुए -
जो राजनीति में धर्म के विरोधी हैं ,
क्या परोक्ष वे-
अधर्म की राजनीति के पक्षधर नहीं हैं ?
मानस चौपाई की अर्धाली-
''राजनीति बिनु धन, बिनु धर्मा ''
अर्थात राजनीति में -
धन और धर्म दोनों आवश्यक हैं .
उन्हें धन याद है, धर्म नहीं 
इसीलिए देश में-
अधर्म की राजनीति फल रही है
जहाँ केवल अधर्मियों की ही चल रही है

Saturday, July 23, 2011

(83) जीवन की सच्चाई

बचपन ! गोद, पालने और खेल में 
कैशोर्य ! पढ़ाई में 
तरुणायी ! प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा की दौड़ में 
परिपक्वता ! पत्नी और बच्चों की फरमाइशों में 
प्रौढ़ावस्था ! संतानों का भविष्य संवारने में
और बुढ़ापा -
घर- परिवार को एकजुट रखने में ,
रिश्तों को निभाने में ,
अवशेष को संवारने में बीत जाता है /
आदमी -
अपने लिए कब जी पाता है ?
वह सारी जिन्दगी -
कोल्हू के बैल सा खटता है /
जिन्दगी के ताने , उलाहने और समय के थपेड़ों में -
लगातार टुकड़े- टुकड़े बटता है  /
इस आपाधापी में -
वह जाने क्या - क्या सहता है /
फिर उसे अपना -
अपने खुद के कुछ होने का ध्यान कहाँ रहता है  ?
जीवन संध्या में, जब वह -
जिन्दगी का हिसाब जोड़ता - घटाता है ,
तो अपने पीछे -
बस केवल रिक्ति ही रिक्ति पाता है  /
यही मानव जीवन की सच्चाई है ,
जहाँ एक ओर कुआँ है -
और दूसरी ओर खाई है  /      

Tuesday, July 19, 2011

(82) नाचता तब मन हमारा

जब मचलती व्योम से , भू पर उतरती वारि धारा ,
मेह   की बूदों के संग- संग नाचता तब मन हमारा  .

पत्तियों को छू ,उतर कर टहनियों से , डालियों पर ,
द्रवित होकर बूँद ढलती, जब उतरती है धरा पर ,
फिर सहज बहती है पहले मंद, फिर गतिमान होकर ,
हुलसती अपनों से मिल वह, थिरकती निज मान खोकर ,
हर्ष ध्वनि करती हुई, नद  धार से मिलती है धारा .
 मेह की बूंदों के संग- संग नाचता तब मन हमारा .


वर्षा रानी का प्रकृति से मिलन या अभिसार भू पर ,
वह टपा- टप पाद स्वर , पाजेब की झनकार मनहर ,
दादुरों की तान के संग, कोकिला का राग सस्वर ,
वह छपा- छप थाप  संग झींगुर बजाते वाद्य  झांझर ,
और नभ में मेघदूतों का जभी बजता नगारा
मेह की बूंदों के संग-संग नाचता तब मन हमारा.

रंग धानी, अंग धानी, कुसुम कलि के झंग धानी,
और ज्यों सावन के रंग में, प्रकृति का हर रंग धानी,
उल्लसित, पुलकित ह्रदय थल, आर्द्र तन तो आर्द्रतम मन,
मात्र वातावरण में ही नहीं, उर में खिले सावन ,
झूलता सावन के झूले में लगे जब विश्व सारा,
मेह की बूंदों के संग-संग नाचता तब मन हमारा.

Sunday, July 17, 2011

(81) आतंक

आखिर क्यों होते हैं बार-बार आतंकी हमले ?
क्यों मच जाती है अचानक अफरा- तफरी ?
क्यों चीखों में बदल जाती हैं आवाजें ?
क्यों हंसती- खेलती जिंदगियां -
बदल जाती हैं लाशों में ?
कहते हैं, आतंक का कोई मजहब नहीं होता ,
लेकिन मकसद तो होता होगा ?
वह मकसद क्या है -
वहशीपन, दरिन्दगी ,
नफ़रत या पैसा ,
मूर्खता या राष्ट्रद्रोह ?
आतंकी घटनाओं में  हो सकती है विदेशी साजिश ,
लेकिन हाथ नहीं /
वे हाथ प्रायः देशी होते हैं /
ये, वे कुत्ते हैं-
जो अपना ही खून चाटकर आनंदित होते हैं /
वे पागल हैं ,पूरी तरह पागल !
और उनका इलाज है , मौत  !
मौत से कम कुछ भी नहीं /
इन पर रहम करना -
खुद के और देश के साथ गद्दारी है /
सवा सौ करोड़ दिलों में दहशत की कीमत पर,
हम रहमदिल कैसे हो सकते हैं ?
ये रक्तबीज हैं ,
इन्हें मारो, बिना रक्त की एक बूँद जमीन पर गिराए /
खुद मरने से पहले मारिये ,
यही आख़िरी रास्ता है /
फिर देशी- विदेशी का भेद न हो /
क्या जुटा पायेगा, इतना साहस यह देश ? ?

Friday, July 15, 2011

(80) रिश्ते

रिश्ते केवल रक्त संबंधों तक सीमित नहीं होते
वे बन सकते हैं-
किसी से भी, कहीं भी, कभी भी
बस उनमें ईमानदारी हो
एक-दूसरे के प्रति वफादारी हो
वे स्वार्थ और लोभ से परे हों
दोनों दिल उमंग से भरे हों
दोस्त, मित्र, सहयोगी-
रिश्ते को कुछ भी दें नाम
लेकिन जब वक्त पड़े-
तो आयें एक दूसरे के काम.

वे जो लोकलाज वश-
सामाजिक विवशताओं में,
या मजबूरियों में
ढोये जाते हैं
वे जिम्मेदारियां तो हो सकते हैं-
लेकिन रिश्ते नहीं हो पाते हैं
जहाँ बस स्वार्थ का नाता हो-
वे यथार्थ में रिश्ते नहीं होते
पत्नी, पति  की-
और पुत्र, पिता के नहीं होते
निभ जाएँ तो बिना नाम दिए-
साथ-साथ चलते जिंदगी गुज़र जाती है
यह बात अलग है-
कि ऐसे रिश्तों को दुनिया नाम नहीं दे पाती है.

Wednesday, July 13, 2011

(79) पत्नी !!

पत्नी !पृथ्वी का वह प्राणी है ,
जो कभी संतुष्ट नहीं होती  /
पति की होकर भी,  जो पति की नहीं होती /
वह कभी बहू है, कभी माँ , कभी सास-
कभी दादी और कभी नानी है /
पति उसके लिए -
महज एक कमाऊ प्राणी है /
उसके पास -
पत्नी होने के अतिरिक्त ढेर सारे रिश्ते हैं /
और पति महोदय !
सारी जिन्दगी इन्हीं रिश्तों की चक्की में पिसते हैं /
वह अपने इन रिश्तों में , असीम सुख पाती है /
इसीलिये -
पत्नी होते हुए , पत्नी कब बन पाती है ?
घर के बाहर आदमी भले ही शेर हो ,
लेकिन घर में प्रायः -
पत्नी ही उस पर शेरनी जैसी गुर्राती है /
उसके पास -
जिन्दगी भर की शिकायतों का पिटारा है /
और पति -
पत्नी के सामने , सिर्फ बेचारा है /
यूं  तो वह ,
पति की लम्बी उम्र और सलामती के लिए -
दर्जनों व्रत और अनुष्ठान करती है /
लेकिन पति को यह एहसास कराने से नहीं चूकती ,
कि वह -
उसके साथ जिन्दगी के दिन भरती है /
वह निरंतर समस्याओं की-
इतनी बड़ी थाती है ,
कि उन्हें हल करते - करते
पति की सारी उम्र गुजर जाती है /

Monday, July 11, 2011

(78) नर कितना असहाय हो गया ?

वर्दीवाला ! शब्द आजकल दहशत का पर्याय हो गया ,
जिसकी लाठी, भैंस उसी की, यही वाक्य अब न्याय हो गया /

जो वर्दी एहसास सुरक्षा का देती थी, अब बिकती है ,
पदवालों, पैसेवालों के आगे नतमस्तक झुकती है,
हाय नौकरी, आह नौकरी, स्वाभिमान के दाम नौकरी,
रोजी -रोटी जो न कराये, नर कितना असहाय हो गया /

जो कल तक खाकी वर्दी से छिपते फिरते भय खाते थे,
और वही वर्दीवाले जिनकी  तलाश में मंडराते  थे ,
अब वे जनप्रतिनिधि, नेता हैं, काले धंधे चला रहे हैं,
वर्दी अब उनकी रक्षक है, शुरू नया अध्याय हो गया /

सीने पर पत्थर रखकर, वे लाठी-गोली दाग रहे हैं,
लेकिन बागी कहाँ थम रहे, लगा वारि में आग रहे हैं,
शायद पता नहीं है इनको, पानी कितना खौल चुका है,
विश्ववन्द्य यह देश आज लगता है कोई सराय हो गया /

वर्दी खाकी हो, काली हो या सफेद हो सब बिकती है ,
न्याय और अन्याय नहीं, बस नोटों की गड्डी दिखती है ,
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट तक झूठी मन माफिक बनती है ,
भरी अदालत झूठ बिक रहा, दुष्कर कितना न्याय हो गया  /

एक नहीं हर ओर दुशासन-दुर्योधन से दुष्ट दरिन्दे,
देश द्रोपदी जैसा कातर, चीरहरण कर रहे लफंगे,
शकुनी मामाओं का जमघट, उलटी धार बहाते पानी ,
शातिर, शोरेपुश्तों के आगे, सब कुछ निरुपाय हो गया  /

Tuesday, July 5, 2011

(76) गंगे तुम्हारी वन्दना

पतित पावनी गंगा के पुनरोद्धार  के लिए अनशन रत रहे, संत निगमानंद की मृत्यु पर उस हुतात्मा के माँ गंगा के प्रति देहदान को श्रद्धांजलि स्वरुप ये पंक्तियाँ -

गंगे तुम्हारी वन्दना! गंगे तुम्हारी वन्दना !
हे पतित पावनि, शुभगते, शत-शत तेरी अभिनन्दना.

माँ भारती की सहचरी, सहजीवनी, सहवासिनी
सुखदा, वरा, नीरासदा, कलि कलुष पातक नाशिनी 
माँ भारती जैसा ही तेरा, स्नेह सबको  मातृवत 
वह देवकी, यशुमति है तू, अदभुत तेरी आलिंगना 
गंगे तुम्हारी वन्दना! गंगे तुम्हारी वन्दना !

सुजला तू ही, सुफला तू ही, तू मातु मलयज शीतला 
तू पाल्या, तू तारिणी , संपन्न तू षोडश कला 
हे सरस सलिला , हम अकिंचन क्या तुझे देंगें भला 
हैं भाव से तेरे जननि,स्वीकार अक्षत-चंदना
गंगे तुम्हारी वन्दना! गंगे तुम्हारी वन्दना !

हे सुरसरी, भागीरथी, विष्णुप्रिया, देवापगा  
अविरल रहे धारा तेरी, माँ पग न अपने डगमगा 
तेरा मलिन मुख देख सारा देश आशंकित-व्यथित 
क्या एक 'निगमानंद' प्रस्तुत हम सभी की अर्पणा
गंगे तुम्हारी वन्दना! गंगे तुम्हारी वन्दना !

Saturday, July 2, 2011

(75) रिमझिम ये फुहारें आईं

 पहली बरसात की रिमझिम ये फुहारें आईं ,
सूखती  धरती  के  चेहरे   पे  बहारें आईं  /

पी कहाँ  प्यासे  पपीहे  ने पुकारा  था कल ,
सूखते झील, नदी, नालों, ने मागा था जल,
पेड़- पौधे भी थे प्यासे , लिए बोझिल आँखें ,
सबके  चेहरों  पे  उम्मीदें  व  करारें लाईं /

दादुरों  की नयी  पीढ़ी  ने  मचाई  हलचल ,
आ गया प्यार मेरा, डाल से बोली कोयल  ,
छत पे चिड़ियों का चहकता हुआ कलरव गुंजन ,
तितलियाँ झूमती फूलों पे  फिरें इतरायीं  /

घास मुसकाई तो मिट्टी ने उड़ाई खुशबू ,
हवा  में  गंध  घुली, झूमती आयी खुशबू  ,
बादलों की घटा में धूप भी सहमी- सहमी ,
तपन घटी ,  मयूर मन में बजी शहनाई /

थोड़ी  बूँदों  ने  किसानों  के  खिलाये  चेहरे ,
अब तो हर बेल के सिर, फूल के होंगे सेहरे   ,  
उर्वरा  उगलेगी  सोना  किसान  के  घर में .
अनगिनत सुनहरे ख़्वाबों की कतारें लाईं  /


Friday, July 1, 2011

(74) मुझे मर जाने दे ( ग़ज़ल )

अपनी आँखों के समंदर में उतर जाने दे ,
कब से रीता हूँ , तू अब तो मुझे भर जाने दे /

बाद मुद्दत के दर- ए -आब पे पहुँचा हूँ मैं  ,
अब हमारी भी तरफ , शोख लहर आने दे  /

यूँ तो शिकवे हैं बहुत ,बाद में कर लूँगा मैं ,
लबों से जाम अभी , इश्क का टकराने दे  /

डूबना चाहता हूँ , आब- ए - मोहब्बत में मैं,
रोकना अब नहीं , लहरों पे लहर छाने  दे  /

डूब जाऊँ भी अगर , तो कोई मलाल नहीं ,
चाहता कौन है जीना ,  मुझे मर जाने दे /