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Saturday, August 27, 2011

(96) उजाड़ की तरह

कल के उजाड़, आज हैं बहार की तरह
और हम उजाड़ से अधिक उजाड़ की तरह.

वो सिर उठाये, आलीशान ताजमहल हैं.
हम हैं उखड चुकी, किसी मजार की तरह.

वो शीश महल में सजे, फैशन की ज्यों दुकान,
हम हैं किसी उजड़ी हुई बाज़ार की तरह.

वो पालकी में बैठे किसी राजकुंवर से,
हम पालकी लिए हुए कहार की तरह.

मसनद पे जमे हैं, वो किसी साहूकार से,
राशन दुकान वाली, हम कतार की तरह.

उनके-हमारे बीच में अंतर बहुत बड़ा ,
चाबी खजाने की वो, हम उधार की तरह.

Monday, August 22, 2011

(95) फिर मुनादी बज रही है

फिर मुनादी बज रही है
फिर बुलावा आ रहा है
 देश का इतिहास ,
  फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /
और हर एक शख्स-
दीवानों के जैसा ,
  एक तिहत्तर वर्ष के बूढ़े के पीछे-
 और उसके पक्ष में
  सडकों पे बांधे मुट्ठियाँ लहरा रहा है /
बच्चों, बूढ़ों ,नौजवानों में-
 अजब आक्रोश सा है /
  और नारी वर्ग में भी-
   कुछ गजब का जोश सा है / 
 कांपती , कमजोर सी आवाज में-
 बूढ़ा वो सच कहने लगा है /
  और उस सच की धमक से - 
    देश की सरकार का मजबूत सा दिखता किला-
  ढहने लगा है /
 फिर वही छत्तीस बरस पहले घटी -
जैसी कहानी /
  फिर वही आक्रोश-
  युवकों में वही दिखती रवानी / 
    और फिर सरकार का वैसा ही हठ,
 जैसा कि तब था / 
    फिर वही सच को दबाने की-
नयी पुरजोर साजिश,
  फिर कुतर्कों की वही-
   सरकार की झूठी कहानी /
  बादशा का हर चहेता -
     सच से फिर कतरा रहा है /
देश का इतिहास
फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /
---------------------------
 उस समय भी -
     एक बूढ़े ने ही कड़वा सच कहा था /
  आज फिर से -
        एक बूढ़ा ही वो सच दुहरा रहा है /
   झूठ की बुनियाद , तब भी थी हिली -
  फिर हिल रही है /
    झूठ को फिर से चुनौती -
   सत्यता से मिल रही है /
  और सत्ता के वे प्यादे -
जो मलाई खा रहे हैं /
    झूठ को ही सच बताकर -
   सत्य को झुठला रहे हैं /

 तर्क देते हैं वे -
   बहसी और विवादी है ये बूढ़ा /
नित नए तूफाँ-
    खड़े करने का आदी है ये बूढ़ा /
 यह है जादूगर -
 न इसके जाल में फंसना- फंसाना /
  स्वार्थी है यह -
   न इसके व्यर्थ बहकावे में आना /
  लाठियां दिखला रहे हैं-
   घुड़कियाँ भी दे रहे हैं /
  वर्दियों का रौब दिखला-
    धमकियाँ भी दे रहे हैं /
   किन्तु यह आक्रोश जो -
    सड़कों पे मुखरित हो रहा है /
  लाख बाड़ों और बांधों से -
  कहाँ अब थम रहा है /
   हर नए दिन, भीड़ का -
  सैलाब बढ़ता जा रहा है /
देश का इतिहास
फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /
---------------------------

काश ! इन अंधों व बहरों में -
तनिक सद्ज्ञान होता /
    स्वार्थ के अतिरिक्त भी कुछ है-
  तनिक संज्ञान होता /
  काश ! वे पाते समझ -
  इन्सान को, इन्सानियत को /
   काश ! वे ढाते न -
  जेरो- जुल्म को , हैवानियत को /
    काश ! वे इस देश के प्रति -
  तनिक सा हमदर्द होते /
    काश ! वे इन्सान होते-
    काश ! वे भी मर्द होते /

   सामना करते वे सच का-
  मिनमिनाते स्वर न होते /
   काश ! जन-गण की व्यथा वे समझते -
  कायर न होते /
तो भला क्यों -
 एक बूढ़ा आदमी यूँ बौखलाता /
    क्यों भला वह देश भर में -
 चेतना की लौ जगाता /
आइये हम सब -
 समर्थन में जुटें , सबको जुटाएं /
 बदगुमानों , बदजुबानों से-
वतन अपना बचाएं /
 देश जागो, लोक जागो,
   नव सवेरा हो रहा है /
देश का इतिहास
  फिर खुद को स्वयं दुहरा रहा है /

Friday, August 19, 2011

(94) नारी

बचपन में भी नहीं था अन्य बच्चों जैसी उन्मुक्तता का अधिकार,
और कैशोर्य?
माता-पिता से लेकर सारे बड़ों की
घूरती-टोकती सी निगाहें 
हर कदम पर टोका-टोकी .
फिर आई तरुणाई.
ऐसे मानो अभिशाप बनकर आई.
अपनी  इच्छा से कहीं आने-जाने की,
अपने मन का कुछ भी करने की,
छूट नहीं, पूरी पाबन्दी !
उफ्फ!
हर तरफ बदन को टटोलती- घूरती निगाहें ,
जिनमें अपनेपन से अधिक वासना की चाह ,
सच-
किसी युवती के लिए कितनी कंकरीली-पथरीली राह?
फिर विवाह-
जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय.
लेकिन इस मामले में भी लड़की जैसे गाय.
चाहे जिस खूटे से बाँध देना 
कोई नहीं जानना चाहता उसकी इच्छा 
किसी अनजान के हाथों अपना सारा जीवन 
अपना स्वत्व , अस्तित्व और भविष्य 
सौंपने को विवश,
फिर वहां पितृगृह से भी अधिक पाबंदियां .
जीवन साथी का प्यार-मनुहार कितने दिन ?
फिर संतानों का प्रजनन 
उनका पालन-पोषण 
ममत्व भी, दायित्व भी.
जननी और पाल्या,
गृह लक्ष्मी,
गृह स्वामिनी ,
पति की अर्धांगिनी 
कितने सारे विशेषणों के आभूषण .
किन्तु क्या, कभी किसी ने पढ़ा नारी का मन?
जहां जन्मी-
उससे पृथक हो जाना उसकी नियति है .
जिसे जीवन सौंपा -
वह स्वामी पहले है, बाद में पति है.
जिन्हें जन्म देने, पालने-पोषने में.
अपना यौवन सुख बलिदान कर दिया 
वे भी कब हो पाते हैं उसके ?
नारी जीवन की यह कैसी गति है.
उसकी एक भी भूल कभी क्षमा नहीं की गयी 
आदि काल से नारी जीवन की यही कहानी है.
किन्तु उसकी पीड़ा किसने जानी है?

Sunday, August 14, 2011

(93) आप क्या करेंगे जगदीश्वर ?

पति शब्द पर पुरुष का एकाधिकार समाप्त 
अब महिला भी हो सकती है पति
आश्चर्य क्यों?
देखिये ! भारत की राष्ट्रपति महिला हैं.
देश के संविधान में-
सबको समान अधिकार प्राप्त है.
भाषा, भूषा और लिंग का भेद पूरी तरह समाप्त है.
बात यहीं तक सीमित नहीं,
अब महिला भी बन सकती है पति .
और पुरुष बन सकता है पत्नी.
यह हम नहीं अदालत कहती है.
जहां प्रकृति नियंता ईश्वर की आत्मा रहती है?
अब देश के कानून में-
समलैंगिक यौन संबंधों के खिलाफ कोई धारा नहीं है.
आप लाख भारतीय संस्कृति की दुहाई दें-
लेकिन आपके पास इसे रोक पाने का कोई चारा नहीं है.
हाँ ऐसे संबंधों में आपसी सहमति अनिवार्य है.
फिर क़ानून को भी ऐसा रिश्ता स्वीकार्य है.
पहले केवल औरत जनती थी बच्चा 
लेकिन अब पुरुष भी ऐसा कर रहे हैं.
वे अपनी कोख में पाल, बच्चा जन रहे हैं.
पुरुष, पुरुष के साथ विवाह करने लगे  हैं
और महिलाएं, महिलाओं के साथ
हे प्रकृति नियंता!
दुनिया ने आपके बनाए कानून बदल डाले
अब आदमी खुद अपना नियंता बन गया है.
अब वह खुद बन रहा है ईश्वर.
फिर आप क्या करेंगे जगदीश्वर?

Friday, August 12, 2011

( 92 ) चेहरे हैं मक्कारों के

सड़कें नाम हुईं कारों के, फुटपाथें बाज़ारों के
जंगल वे जंगल विभाग के, जोत-खेत सरकारों के
दफ्तर, अफसर - बाबू घेरे, जहां दलाली आम हुई
पुलिस सड़क पर करे वसूली, थाने थानेदारों के .

नदियाँ , तीरथ , घाट पुजाऊ पंडों की जागीर हुए 
मंदिर-मंदिर जमें पुजारी, दोनों हाथों लूट रहे 
बस भाड़े में जेब कट रही, रिश्ते-नाते दूर हुए
जो कुछ बाकी बचा, छिपाते नज़रों से बटमारों के.

राजनीति में काबिज गुंडे, सरकारों में बैठे चोर
शासन में भी हेरा-फेरी करने वालों का ही जोर
अस्पताल दल्लों के हाथों, डॉक्टर चांदी काट रहे
भरी आदालत वादी लुटते, मौज-मजे बदकारों के.

धरना, रैली और प्रदर्शन पर लाठी की मार पड़े 
टुकुर-टुकर हम ताकें यह सब, चौराहे पर खड़े -खड़े 
बोलो मालिक कहाँ जायं अब, किससे हम फ़रियाद करें 
जिधर उठाकर नज़रें देखो , चेहरे हैं मक्कारों के.


Wednesday, August 10, 2011

(91) मायावी दानव

वे दादी-नानी की काल्पनिक कहानियां 
मायावी दानव और उसका तिलिस्म 
जो अपने विरोधियों को पत्थर बना देता था 
किसी राजकुमारी को अपहृत कर बंदी बना लेता था
उससे जो भी टकराता .
वह या तो मारा जाता-
या पत्थर का हो जाता
उसने जाने कितनी  गर्दनों को कतरा .
जाने कितनों  को बनाया भेड़ा -बकरा 
उसे वर्षों तक कोई हरा नहीं पाया 
क्योंकि उसकी आत्मा -
उसके प्राणों का रहस्य कोई नहीं खोज पाया .
फिर किसी तरह भेद खुला ,
कि दानव की आत्मा -
पिंजरे में बंद तोते में कैद है .
जब वह तोता मरेगा-
तो दानव भी निर्जीव हो जायेगा 
सात तालों में बंद तोता
अभेद्य सुरक्षा तंत्र से घिरा तोता
तिलिस्मी चक्रव्यूह में कैद तोता
और उस तोते में बसी दानव आत्मा
जहाँ न पहुंचना आसान था
और न तोते को मार पाना .
फिर एक राजकुमार का दृढ निश्चय
और उसका मार्ग प्रशस्त करने वाला फकीर
उसने राह दिखाई ,
राजकुमार को तिलिस्मी अंगूठी पहनाई .
अब वह अदृश्य हो सकता था.
सुरक्षा घेरे को भेद तोते तक पहुँच सकता था.
यह संभव हुआ -
राजकुमार ने तोते की गर्दन मरोड़ी
और दानव धराशाई हो गया .

आज देश में बहुत सारे दानव हैं
उनहोंने भी लोकतंत्र की राजकुमारी को कैद कर रखा है.
तोतों में नहीं-
विदेशी बैंकों के रहस्यमय खातों में.
देश को किसी राजकुमार, किसी फ़कीर का इंतज़ार है
क्या कोई राजकुमार आएगा ?
कोई फ़कीर उसे मार्ग दिखायेगा ?
वह भेदेगा रहस्य को ?
पहुँच सकेगा उन बैंक खातों तक?
और यह देश-
देश का लोकतंत्र दानवों के आधिपत्य से मुक्त हो पायेगा ?

Sunday, August 7, 2011

(90)खुद को रुसवा कर गए

बुज़दिलों की फ़ौज फिर बढ़ने लगी है देश में ,
बढ़ रहे  हैं  खुदकुशी  के मामले हर दिन नए  /
आन की खातिर कभी, या देश की खातिर कभी ,
जान  देते  लोग थे , अब  वे  जमाने  लद गए  /

इश्क में नाकाम तो मंजिल है जिनकी खुदकुशी ,
इम्तिहां में  फेल  हों , तो  भी  तलाशें  खुदकुशी /
कितने नाज़ुक दिल हैं इस दम, मोम हैं या रेत हैं ,
जो तनिक  सी  आँच  में पिघले, हवा में बह गए /

जिधर  देखो !  नौजवानी , इश्क में  बीमार है  ,
हर किसी को बस हकीम-ए-इश्क की दरकार है /
इश्क क्या वे  ख़ाक  फ़रमाएंगे , ये सोचो ज़रा ,
जो ज़रा से तल्ख़  झोकों  में  जड़ों से ढह  गए  /  

जो  कभी  नाकामियों  के खौफ से  डरते नहीं  ,
लड़ते हैं वे , जीतते भी  , इस तरह मरते नहीं  /
जिन्दगी खोकर के किसने , क्या भला हासिल किया ,
जान से खुद भी गए और खुद को रुसवा कर गए  /

Friday, August 5, 2011

(89) उनके सपने उड़ान भरने दो

छोड़कर उंगलियाँ चलाओ उन्हें 
खुद उन्हें अगला पाँव धरने दो .
जवानी उफनती नदी सी है  ,
राह खुद ही तलाश करने दो  /

सोच सकते हैं वे , गलत क्या है ,
और क्यों, कब , कहाँ सही क्या है .
उनके सपनों के पंख उगने दो ,
उनके सपने उड़ान भरने दो  /

हटा दो  पत्थरों को राहों से ,
तुम से मुमकिन हो तो करो इतना .
ठोकरें खुद उन्हें सबक देंगी  ,
उनको मंजिल तलाश करने दो  /

थामकर बांह चलोगे कब तक ,
अपने पैरों वे कब खड़े  होंगे  ?
लड़खड़ाएंगे फिर वे संभलेंगे ,
उन्हें खुद आप से सँवरने दो  /

कैद पिंजरों में मत करो उनको ,
खोल दो बंदिशें सभी उनकी  .
कितनी लम्बी उड़ान भरनी है,
फैसला खुद उन्हें ही करने दो  /

Wednesday, August 3, 2011

(88) भारत वर्ष ही अभिशप्त है ?

इस देश में  अब  प्रेरणा,  पौरुष ,  पराक्रम  अस्त  है,
साहित्य, संस्कृति , सृजन, शुचि ,संवेदना संत्रस्त है .
अन्याय के प्रतिकार की तो बात ही मत कीजिये ,
अधिकार अपने मागने का , हौसला तक पस्त है .

उत्कर्ष  के, उत्थान  के, निर्माण, नव निर्माण के ,
बनते हैं कितने , रोज फर्जी कागजों पर आंकड़े ,
यह आंकड़ों का खेल भी, बाजीगरी का खेल है  ,
बस मस्मरेजम खेल में , सरकार अपनी व्यस्त है.

हाथ खाली हैं जवानों के, वे रह- रह मल रहे हैं  ,
बुद्धिजीवी !  बंद कमरों में जुगाली कर रहे हैं  ,
याकि  टी वी चैनलों पर बस ज़बानों की नुमाइश ,
मानो प्रवचन बांचता , यह वर्ग भी सन्यस्त है .

हर महकमा, हर मुलाजिम , लूट के पर्याय जैसा ,
देश का क़ानून , खुद में पंगु सा, असहाय जैसा ,
पेट उतने ही बड़े , जितनी बड़ी वे कुर्सियों पर ,
देश !  ईश्वर के भरोसे है , व्यवस्था ध्वस्त  है .

कुछ अस्त है, कुछ पस्त है , कुछ त्रस्त, कुछ संत्रस्त है ,
लगता  है , जैसे  देश  भारत वर्ष   ही अभिशप्त है .

.

Monday, August 1, 2011

(87) यह जीवन है ! ! !

जीवन के पाँच तत्त्व -
पृथ्वी, अग्नि, जल, आकाश और हवा 
और पाँचों दैनंदिन जीवन में गतिमान .
युद्ध का प्रतीक पृथ्वी, वीर भोग्या वसुंधरा .
संघर्ष का प्रतिमान अग्नि,ताप भी- तेज भी .
प्रवाह का द्योतक जल, जुएँ जैसा अनियंत्रित .
शून्य का बिम्ब आकाश, अनंत  आशाओं सा .
और जीवनदायिनी वायु, जो अदृश्य है - पहेली है .

                           (१ )
जीवन युद्ध है .
यहाँ विजय भी संभव है तो पराजय भी ,
जैसा कि हर युद्ध में होता है .
किन्तु फिर भी आदमी जीतना चाहता है, केवल जीतना .
जो जीत नहीं पाते ,
साहस खो देते हैं,
वे ही वरण करते हैं आत्म- वध का मार्ग .
दूसरी सेनाओं से लड़ते हुए -
सैनिक भी तो पराजित होते हैं ,
तो क्या वे आत्महत्या कर लेते हैं ?

                      (२ )
जीवन संघर्ष है .
अर्थात जीवन जीना है तो,
लड़ना होगा, सिर्फ लड़ना .
और कोई मार्ग भी तो नहीं है .
जो संघर्ष से घबराते हैं ,
वे बिना लड़े ही हार जाते हैं .
फिर वे दायित्वों से विमुख-
पलायनवाद का मार्ग अपनाते हैं .
और सारा जीवन -
दूसरों की कृपा पर आश्रित ,
दूसरों की झिड़कियाँ सहकर बिताते हैं .

                       (३ )
जीवन जुआं है .
जहां आवश्यक नहीं-
कि हर पाशा सीधा ही पड़े .
किन्तु यह प्रकृति प्रदत्त मजबूरी है.
न चाहते हुए भी -
इस जुएँ में पाशा फेकना जरूरी है .
हर पाशा उलटा भी नहीं पड़ता ,
जब भी पाशा तुम्हारे पक्ष में आयेगा .
अनायाश ! सब कुछ ठीक हो जाएगा .

                      (४ )
जीवन आशा है .
अर्थात आशा ही जीवन है .
आशाएं बलवती होती हैं.
तो वे प्रायः फलवती भी होती हैं .
जो आशा की डोर नहीं छोड़ता ,
वह प्रायः पार होता है .
और जो निराश हो गया,
वह भाग्य को कोसता हुआ रोता है.

                   (५ )
जीवन पहेली है .
ऐसी पहेली, जो कभी हल नहीं होती .
जिसका कोई सिरा पकड़ में नहीं आता ,
ठीक हवा की तरह .
लेकिन इस पहेली से जूझना ही जीवन है .
यह कभी हंसाती है, कभी रुलाती है .
कभी उलझाती , तो कभी खुद रास्ता दिखाती है .