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Saturday, September 29, 2012

(169) अलग फितरत से खुद को कर नहीं पाते

परिंदों के घरौंदों को , उजाड़ा था तुम्हीं ने कल ,
मगर अब कह रहे हो , डाल पर पक्षी नहीं गाते।

तुम्हीं थे जिसने वर्षों तक , न दी जुम्बिश भी पैरों को ,
शिकायत किसलिए , गर दो कदम अब चल नहीं पाते ?

वो पोखर , झील , नदियाँ , ताल सारे पाटकर तुमने ,
बगीचे  ,  पेड़  -  पौधे ,  बाग़  सारे  काटकर  तुमने   ,

खड़ी अट्टालिकाएं कीं , बनाए  महल - चौमहले  ,
मगर अब कह रहे , बाज़ार में भी फल नहीं आते।

ये कुदरत की , जो बेजा दिख रही तसवीर है सारी ,
तुम्हारी  ही  खुराफातों  की ,  ये  तासीर  है  सारी  , 

वही  तो  काटना  है  पड़  रहा  , बोते  रहे  जो  कुछ ,
मगर फिर भी ,अलग फितरत से खुद को कर नहीं पाते।

                                          - एस .एन .शुक्ल 

Saturday, September 22, 2012

(168) नदी सागर से मिले है

उम्मीद की  दरिया में  कवँल  कैसे  खिले  है ,
लम्हों की खता की सज़ा , सदियों को मिले है।

मज़बूर बशर की कोई सुनता नहीं सदा ,
वह बेगुनाह होके भी , होठों को सिले है।

इनसान की फितरत में ही , इन्साफ कहाँ है,
जर, जोर, ज़बर हैं जहां , सब माफ़ वहाँ  है।

हर दौर गरीबों पे सितम , मस्त सितमगर ,
कब  मंद  हवा से  कोई ,  कोहसार  हिले है ?

कुदरत का भी उसूल ये, कमजोर झुके है ,
सागर नहीं मिलते , नदी सागर से मिले है।

                        - एस .एन . शुक्ल 

Thursday, September 13, 2012

(167) हिन्दी हमारी मातृभाषा है

ज्यों गंगा संग विविध नदियाँ , सरस्वति है , कालिंदी है  /
त्यों अपनी अन्य सखियों संग , बड़ी बहना सी हिन्दी है  /
इसी में  कृष्ण  का  शैशव ,  इसी  में  राम  का  वैभव ,
ये भारत भाल चन्दन  है , ये  भारत  माँ की  बिंदी है  /

यहाँ   उर्दू  है  ,  बंगाली  ,  मराठी  और  गुज़राती ,
तमिल, तेलगू , असमिया और मलयालम मेरी थाती /
गुरुमुखी , कोंकड़ी , कन्नड़ हैं, उड़िया , डोंगरी भी हैं  ,
हमें हरियाणवी , मैथिलि , मिजो भी ,मणिपुरी भाती /

सगी बहनें ये हिन्दी की , वो  माँ है  तो ये मासी  हैं  ,
कहा जाता  है  भाषाएँ  ये , संस्कृत  की  नवासी हैं  ,
न होती माँ से मासी कम , मिले समवेत अपनापन ,
हमें है गर्व खुद पर , क्योंकि हम बहु भाषाभासी हैं  /


महक तुलसी की हिन्दी में , यही कबीरा की बानी है ,
ये है  रसखान  का  अनुनय  , यहीं  मीरा  दीवानी है  ,
शिवा की  बावनी  भूषण , रचाते  हैं  यहाँ  विधि से ,
ये है जगनिक का आल्हाखण्ड , वीरों की कहानी है  /

महादेवी का निर्झर स्नेह , तो फक्कड़ निराला है  ,
यहाँ बच्चन की मधुशाला में, हाला और प्याला है ,
बिहारी , सूर , जयशंकर , घनानंद और रहिमन हैं ,
यहीं नागर के नटवर हैं , तो रतनाकर की माला है  /

जायसी , पन्त , केशव, देव , दिनकर और पदमाकर ,
गिनाएं नाम कितने , व्योम है , धरती है , यह सागर  ,
ये हिन्दी ! हिंद का गौरव , करोड़ों जन की आशा है  ,
न  भाषा मात्र  यह  ,  हिन्दी  हमारी  मातृभाषा  है /

                                 - एस एन  शुक्ल 

Wednesday, September 12, 2012

(166) दीवाना बना डाला

      
हकीकत को तेरी इक जिद ने अफसाना बना डाला /
तेरी  मासूमियत  ने , मुझको   दीवाना  बना डाला /

ये दुनिया भी तेरी ही हमनवा , दुश्मन हमारी है ,
तुझे रोशन शमा  ,तो मुझको परवाना बना डाला /

तू समझे या न समझे , अपने दिल को तेरी फुरकत में ,
हमेशा  के  लिए  मैंने  ,  सनमखाना  बना  डाला /

तेरी ही याद की वर्जिश , सुबह से शब् तलक हर दम ,
ये दिल अब दिल कहाँ है,  दिल को जिमखाना बना डाला /

मैं फाकेमस्त हूँ  , मुझको ज़मीं ज़र की ज़रुरत क्या ,
तेरी  उल्फत  की  दौलत  ने  ही  , शाहाना बना डाला /

                                        -  एस.एन.शुक्ल  

Sunday, September 2, 2012

( 165 ) जीने का बहाना हो तुम

            जीने का बहाना हो तुम


जागती रातों में , सपनों का खजाना हो  तुम  /
कैसे बतलाएं , कि  जीने  का बहाना हो तुम  /

अब तो हर साँस में , धड़कन में तुम्हारी ही रिदम ,
तुम  मेरी  नज़्म , रुबाई  हो ,  तराना  हो  तुम  /

मेरे  गुलशन  में , खिलाये हैं  फूल तुमने ही ,
रंग- ओ - खुशबू से , सजाये हैं फूल तुमने ही ,

इस इनायत का , तहे दिल से हूँ मैं शुक्र -ए - गुज़ार ,
तुम  मेरी  जीश्त हो , जीनत  मेरी, ज़ाना  हो  तुम  /

तुमसे होती है शुरू दुनिया मेरी , तुम पे ख़तम ,
हमारे  वास्ते !  यह  सारा  ज़माना  हो  तुम  /

                                 - एस .एन .शुक्ल